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उल्लेख किया है, जो सम्प्रति अनुपलब्ध है । 'प्रमाणसंग्रह' नामक यह कृति 'अकलंक ग्रन्थत्रय' में प्रकाशित है।
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4. सिद्धिविनिश्चय सवृत्तिः - अकलंकदेव की इस महत्त्वपूर्ण रचना में 12 प्रस्ताव हैं। जिनमें प्रमाण, नम एवं निक्षेप विषयक विस्तृत विवेचन किया गया हैं I
प्रथम 'प्रत्यक्षसिद्धि' नामक प्रस्ताव में प्रमाण, प्रमाणफल के प्ररूपणपूर्वक स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के निर्विकल्पत्व का खंडन किया गया है। 'सविकल्पसिद्धि' नामक द्वितीय प्रस्ताव में अवग्रह आदि ज्ञानों का विस्तृत वर्णन किया गया है। 'प्रमाणान्तर सिद्धि' नामक तृतीय प्रस्ताव में परोक्षप्रमाणान्तर्भूत स्मृति - प्रत्यभिज्ञान आदि की प्रामाणिकता का निरूपण किया गया है। चतुर्थ प्रस्ताव का नाम 'जीवसिद्धि' है; इसमें तत्त्वोपप्लववाद, भूतचैतन्यवाद आदि दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा की गयी है। 'जल्पसिद्धि' नामक पाँचवें प्रस्ताव में जल्प, निग्रहस्थान एवं जयपराज्प व्यवस्था आदि का वर्णन है। छठवें प्रस्ताव का नाम हेतुलक्षणसिद्धि' है, इसमें हेतु का अन्यथानुपपत्तित्वकलक्षण की सिद्धिपूर्वक हेतुओं के भेद, कारण आदि का भी कथन आया है। सप्तमप्रस्ताव 'शास्त्रसिद्धि' है, जिसमें श्रुल का
मोक्ष-मार्गसाधकत्व, शब्द का अर्थवाचकत्व एवं वेदों की अपौरुषेयता की समालोचना की गई है। अष्टम 'सर्वज्ञसिद्धि प्रस्ताव' में सर्वज्ञ की सिद्धि की गयी है। 'शब्दसिद्धि' नामक नौवें प्रस्ताव में शब्द का पौद्गलिकत्व सिद्ध किया गया है। 'अर्धनयसिद्धि' नामक दसवें प्रस्ताव में नैगम-संग्रह-व्यवहार एवं ऋजुसूत्र - इन चार अर्धनयों एवं इनके नमाभासों का वर्णन आया है। ग्यारहवें प्रस्ताव का नाम 'शब्दनम सिद्धि' है इसमें शब्द का स्वरूप, स्फोटवाद एवं शब्द - नित्मता के खंडनपूर्वक शब्द, समभिरूढ़ एवंभूत- इन तीन नयों का वर्णन है। बारहवें 'निक्षेपसिद्धि' नामक प्रस्ताव में निक्षेप का लक्षण, भेद-उपभेद आदि के स्वरूप एवं उनकी सम्भावनाओं पर विचार किया गया है।
डॉ महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य ने इन बारह प्रस्तावों को (1) प्रमाणमीमांसा (2) प्रमेयमीमांसा, (3) नयमीमांसा एवं (4) निक्षेपमीमांसा इन चार विभागों में वर्गीकृत किया है ।
उक्त संक्षिप्त विवरण से भी इस ग्रन्थ की महनीयता का स्पष्ट आभास हो जाता है। यहाँ तक वर्णित अकलंक - साहित्य सुनिर्णीत एवं प्रकाशित है, किन्तु 'स्वरूमसम्बोधन–पञ्चविंशति' नामक रचना मूलमात्र प्रकाशित होते हुए भी
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