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की मान्यता मूल से प्रमाणित नहीं है तथा अन्य अन्त:साक्ष्य एवं बहि: साक्ष्य भी इसका विरोध करते हैं, अत: अकलंकदेव को ईसा की आठवीं शताब्दी (720-730 ई०) का विद्वान् दार्शनिक मानना ही युक्तिसंग है।
रचनायें:- आचार्य भट्ट अकलंकदेव के साहित्य को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- स्वतन्त्र ग्रन्थ और टीका साहित्य । उनके द्वारा विरचित स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं- 1. लघीयस्त्रय सवृत्ति, 2. न्यायविनिश्चय सवृत्ति, 3. सिद्धिविनिश्चय सवृत्ति, 4. प्रमाणसंग्रह सवृति एवं 5.स्वरूपसम्बोधनपञ्चविंशतिः । टीका-साहित्य में 1. सभाष्य तत्त्वार्थवार्तिक एवं 2. अष्टशती दिवागमविवृत्ति) प्रमुख हैं। प्रथमत: अल्प संख्या में होने से एवं बृहदकार, गंभीर होने से टीका-ग्रन्थों का परिचय दिया जा रहा है, स्वतन्त्र ग्रन्थों का इनके बाद क्रम-प्राप्त होगा।
टीकाग्रन्थ:- 1, सभाष्य तत्त्वार्थवार्तिक:- आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी के कालजयी ग्रन्थ 'तत्त्वार्थसूत्र' अपरनाम 'मोक्षशास्त्र' पर यह व्याख्यापरक ग्रन्थ लिखा गया है। इसमें तत्त्वार्थसूत्र के 355 सूत्रों में से सरलतम 27 सूत्रों को छोड़कर शेष 328 सूत्रों पर गद्य वार्तिकों की रचना की गयी है, जिनकी समग्र संख्या दो हजार छह सौ सत्तर (2670) है। इसमें आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि विरचित सर्वार्थसिद्धि टीका को आधार बनाकर सूत्रकार के सूत्रों पर संभावित आशंकाओं का निराकरण कर ग्रन्थकार के सूत्रों का मर्म-उद्घाटन किया गया है। इन वार्तिकों पर स्वोपज्ञ भाष्य भी है। यह वार्तिक शैली पर लिखा गया प्रथम भाष्य ग्रन्थ है। अकलंकदेव-विरचित साहित्य में यह सबसे विस्तृत है। लगभग सोलह हजार श्लोकों जितने विस्तारवाले इस ग्रन्थ के प्रथम और चतुर्थ अध्याय विशेष महत्त्वपूर्ण हैं, जिनमें मोक्ष और जीव-सम्बन्धी विभिन्न विचारों का परीक्षण प्राप्त होता है। अकलंक के अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा इसकी भाषा अत्यन्त सरल है। इसमें अकलंकदेव की विशिष्ट प्रज्ञा के दर्शन होते हैं। विशेषत: अनेकों जैन एवं जैनेतर ग्रन्थों के प्रभूत उद्धरणों से इसकी महत्ता स्पष्ट हो जाती है। व्याकरणशास्त्र, न्यायशास्त्र एवं दर्शनशास्त्र - तीनों के प्रगाढ़ पाण्डित्य के दर्शन इस ग्रन्थ में होते हैं | ग्रन्थ की पुष्पिकाओं में इसे 'तत्त्वार्थवार्तिकव्याख्यानालंकार' संज्ञा दी गयी है। विद्वानों ने इसे उनकी प्रथम रचना अनुमानित किया है।
2. अष्टशती:- जैनदर्शन में आचार्य समन्तभद्र विरचित 'आप्तमीमांसा' अपरनाम देवागमस्तोत्र' का विशिष्ट गौरवपूर्ण स्थान है। इसी ग्रन्थ की 800