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धर्माकरदत्त 'अर्चट' (ई0 680-720 तक), शान्तिभद्र (ई० 700), धर्मोत्तर (ई० 700), कर्णगोमि (आठवीं शता०ई०) एवं शान्तिरक्षित (ई० 705-762 ई० तक) आदि के ग्रन्थों का प्रभाव, उल्लेख आदि प्रमाणित होने से अकलंकदेव का इनके परवर्ती होना सुनिश्चित है।
समकालीन उल्लेखों में अकलंक को मान्यखेट के राजा शुभतुंग (मूलनाम कृष्णराज प्रथम) के मन्त्री पुरुषोत्तम का पुत्र बताया गया है । कृष्णराज प्रथम का शासनकाल 756 ई0 से 775 ई० तक रहा है। एक अन्य उल्लेख में राष्ट्र-कूटवंशीय राजा साहसतुंग (मूलनाम दन्तिदुर्ग) की सभा में सनस्त बौद्ध-वादियों को वाद' में अकलंकदेव के द्वारा पराजित किये जाने का वर्णन है । दन्तिदुर्ग का राज्यकाल 745 ई० से 755 ई० है । अतः स्पष्ट है कि ई0 745 से 775 ई० तक अकलंकदेव अवश्य विद्यमान थे।
परवर्ती प्रमाणों में आचार्य विद्यानन्दि (ई० 775-840 ई०) के द्वारा अकलंक कृत 'अष्टशती' पर अष्टसहस्री' टीका की रचना एवं धनञ्जय कवि (810 ई०.) धवलाकार वीरसेन स्वामी (816 ई०) एवं आदिपुराणकर्ता आचार्य जिनसेन (ई० 760-813 ई०) द्वारा अकलंकदेव या उनके साहित्य को उद्धृत/स्मृत किया जाना यह सिद्ध करता है कि इनके पूर्व अर्थात् ई० 775 तक अकलंकदेव का साहित्य एवं कीर्ति निर्मित हो चुकी थी। अत: अकलंक को इससे परवर्ती कदापि नहीं माना जा सकता है।
उक्त समस्त पूर्वावधि-समावधि एवं उत्तरावधि प्रमाणों के आधार पर विद्वानों ने अकलंकदेव की समय सीमा ई0 7200-780 ई० निर्धारित की है। इस मान्यता के प्रमुख प्रवर्तक/समर्थक विद्वान् हैं- डॉ महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य, डॉ० के०बी० पाठक, डॉ० जी०आर० भण्डारकर, डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण एवं पं० नाथूराम प्रेमी आदि।
समीक्षा:- चूंकि विवाद का मूल मुद्दा विक्रमार्कशकादीय:' यह पद है। इसमें 'विक्रम' का उल्लेख भी है और 'शक' का भी, किन्तु संवत्' या 'वर्ष' सूचक शब्द 'अब्द' का प्रयोग 'शक' शब्द के साथ है; अत: 'शक संवत्' अर्थ लिया जाना ही संगत है। रही बात 'विक्रमार्क' पद की सार्थकता की, तो यह पद विशेषण के रूप में आया है, अत: 'विक्रम-पराक्रम में अर्क-सूर्य के समान शकराज का संवत्'- यह अर्थ ही उचित प्रतीत होता है। अतः यहाँ 'विक्रम संवत्' अर्थ लेने