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बौद्धों के साथ महान् 'वाद' हुआ था।
उक्त पद्य में सात सौ' संख्या तो स्पष्ट है, किन्तु विक्रमार्क' एवं 'काब्दीय' इन दो पदों ने भ्रमात्मक स्थिति पैदा कर रखी है। क्योंकि यदि विक्रमसंवत्' अर्थ यहाँ ग्रहण करते हैं, तो विक्रमसंवत् 700 अर्थात् सन् 643 ई० में उक्त वाद-घटना मानी जायेगी तथा यदि शकसंवत्' अर्थ लिया जाता है, तो शकसंवत् 700 अर्थात् सन् 778 ई० की यह घटना सिद्ध होती है। बस इसी विक्रमसंन्त तथा वाकसंवत् वाले मतान्तर ने विद्वानों को अकलंक के कालनिर्णय के बारे में दो वर्गों में खड़ा कर दिया है। और फिर दोनों वर्गों के विद्वानों ने अपने-अपने मत के समर्थन में अन्य प्रमाण भी एकत्रित किये हैं। उन पर दृष्टिपात करना अपेक्षित है।
प्रथम मान्यता (620-680 ई०) के विद्वानों के अनुसार धनञ्जयकवि ने अपनी नाममाला में अकलंकदेव के प्रमाण-वैशिष्ट्य का उल्लेख किया है, तथा वीरसेन स्वामी (ई० 816) ने 'धवला' ग्रन्थ में 'इति' शब्द का अर्थ बतलाने के लिए धनञ्जयकवि की 'अनेकार्थनाममाला' की 39वाँ पद्य उद्धृत किया है। अत: वीरसेन से पूर्ववर्ती धनञ्जय हैं तथा धनञ्जय से पूर्ववर्ती अकलंकदेव सिद्ध हुए।इस प्रकार युक्तिपूर्वक भट्ट अकलंकदेव का काल सातवीं शताब्दी (6283-680 ई0) विद्वानों ने निर्णीत किया है। इस मान्यता के प्रवर्तक एवं समर्थक विद्वानों में डॉ नेमिचन्द्र शास्त्री, पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, पं० श्रीकण्ठ शास्त्री, आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार एवं डॉ० ए०एन० उपाध्ये प्रभृति विद्वान् प्रमुख है।
. द्वितीय मान्यता (720-780 ई०) के विद्वानों के अनुसार जो प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं, उन्हें तीन वर्गों में रखा जा सकता है- पूर्ववर्ती समयसीमावाले प्रमाण, समकालीन व्यक्ति एवं परवर्ती समय-सीमा-निर्धारक प्रमाण ।
पूर्ववर्ती प्रमाण में शिलालेखों में भट अकलंकदेव का स्मरण आचार्य सुमति के बाद किया गया है। डॉ० भट्टाचार्य ने आचार्य सुमति का समय लगभग 720 माना है। तथा पं० दलसुखभाई मालवणिया प्रभूति विद्वानों ने आचार्य सुमति की उत्तर सीमा 750 ई० से 762 ई० तक मानी है। अत: इनके बाद ही अकलंकदेव का उल्लेख होने से अकलंकदेव का समय आठवीं शताब्दी ई० का उत्तरार्द्ध होना चाहिए। इसके अतिरिक्त आचार्य अकलंकदेव के ग्रन्थों में भर्तृहरि (5वीं शता०ई०), कुमारिल भट्ट (सातवीं शता० का पूर्वार्द्ध), धर्मकीर्ति (ई० 620 से 690 ई०). जयराशि भट्ट (सातवीं शतालई०), प्रज्ञाकर गुप्त (ई० 660-720 तक)