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प्रारम्भ-वचन अक्षरश: पूर्ववत् ही हैं।
अन्त में – “स्वरूप-सम्बोधन-पंचविंशतिग्रन्थ परिसमाप्त्यनन्तरमी ग्रंथ तन्न पेळुवंगं शुभमस्तु ।। श्री वीतरागाय नमः । श्री पंचगुरुभ्यो नमः । श्री मुनिभद्राय नमः । । श्री-श्री-श्री-श्री-श्री।।"
इसी के अन्तिम भाग के तुरन्त बाद आगामी दो पत्रों में यही ग्रन्थ मूलमात्र लिखा गया है, किन्तु उसकी आधार-प्रति संस्कृत टीका वाली प्रति रही होगी, तभी तो उसके प्रारंभ में संस्कृत टीकाकार का मंगलाचरण (स्वरूप-सम्बोधनाख्य ग्रन्थस्यानम्य तन्मुनिम्। रचितस्पाकलंकेन वृत्तिं वक्ष्ये जिन नमिम् ।।) दिया गया है तथा फिर मूलग्रन्धमात्र है; किन्तु इसके पाठ संस्कृत टीकावाली प्रति में हैं, कन्नड़ टीकावाली प्रति में नहीं। साथ ही अन्तिम पद्य में अन्तर है। इस प्रति में पाठ है
"इति स्वतत्त्वं परिभाव्य वाङ्मयं, पठन्ति शृण्वन्ति च ये कृतादरात् ।
करोति तेषां परमात्म-संपदं, स्वरूप-सम्बोधन-पंचविंशतिः ।।" जबकि प्रकाश्य संस्कृत टीका में पाठ है
"इति स्वतत्त्वं परिभाव्य वाङ्मय, य एतदाख्याति श्रुणोति चादरात् ।
करोति तस्मै परमात्मसंपदं, स्वरूप-सम्बोधन-पंचविंशति: ।।"
ग्रन्थांक 514 - यह पत्र सं० 125 से लेकर पत्र सं० 132 तक के कुल सात पत्रों में लिखित पूर्ण प्रति है, इसमें भी महासेन पंडितदेव की कन्नड़ टीका है। इसमें व कन्नड़ टीका वाली प्रति में (26 नं०) कोई अन्तर नहीं है। मात्र अन्त में प्रशस्ति पूर्ण होने पर "श्री वीतरागाय नमः' के साथ 'श्री सरस्वत्यै नमः' भी कहा गया है। तथा "श्री समयाचरण-मलधारि-वीर-बावरी-ललितकीर्तिदेवर भावनापंचकद पुस्तकक्कै मंगलमहा।। श्री श्री श्री श्री श्री ।''- यह लिखते हुए कन्नड़ का एक कंद' पद्य भी दिया है, जो कि निम्नानुसार है
"सुरलोक राज्य सुखमं, सुरराजं कोळेद पुल्लदक्कं बगेवं- . तिरे बगेदु बिसुटनेंदोडे,
नरराव सुखक्के व्यसुवर संसृतियम् ।। (अर्थात् देवलोक के सुख को सुरराज देवेन्द्र ने सड़े हुए फूल के समान
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