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पवचनकार ने प्रारंभ में कहा है कि 'स्वरूप-सम्बोधन' नाम का यह स्तोत्र श्रीमद्-अकलकदेव द्वारा विरचित है। इस तरह ग्रंथ का नाम स्वरूप-सम्बोधन' एवं कर्ता का नाम अकलंकदेव स्पष्ट होता है। अन्तिम पद्य के व्याख्यान में भी ग्रंथकर्ता 'अकलंकदेव आचार्य' कहे गये हैं तथा ग्रंथ की पद्य संख्या 24 मानी गयी है एवं 25वाँ पद्य प्रशास्तिरूप माना गया है। प्रवचन सरल एवं सामान्य हैं।
पाठ-भेदों का संकलन एवं सम्पादन अत्यन्त जटिल कार्य है, विशेषतया प्रकाशित प्रतियों के बारे में । क्योंकि जैन समाज के अधिसंख्य विद्वान् 'सम्पादक' संज्ञा धारण करने के लिए किसी विशेष योग्यता की अपेक्षा नहीं समझते हैं, जिसका प्रमुख प्रमाण होता है कि वे प्राचीन आचार्यों के प्रकाश्य ग्रंथों को प्रकाशित करते समय उसकी आधार-प्रति के बारे में कुछ भी उल्लेख करना आवश्यक नहीं समझते हैं। जबकि यह किसी भी सम्पादक की प्राथमिक अनिवार्य योग्यता है। अत: प्रकाशित प्रतियों के पाठों के जो रूप हैं, वे कितने मूलाधारित हैं तथा कितने प्रूफरीडिंग की असावधानी से जन्मे हैं - यह निर्णय करना कठिन हो जाता है। फिर भी हमें बिना किसी आधार के निर्णय नहीं करना है, अत: प्रकाशित प्रतियों के संग्रहकर्ता या सम्पादक के नाम से उस प्रति के पाठों को वर्गीकृत करेंगे, क्योंकि वे ही उन प्रतियों के गुण-दोषों के लिए उत्तरदायी है। तथा हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के पाठों को उनके ग्रन्ध-भण्डारों एवं टीकाओं आदि के नाम से उल्लिखित किया जायेगा।
निष्कर्ष – उपर्युक्त सम्पूर्ण विश्लेषण एवं तथ्यों के आधार पर कतिपय बातें सुस्पष्ट हैं1. प्राचीन प्रतियों में सर्वत्र ग्रन्थ का नामकरण 'स्वरूप-सम्बोधन-पंचविंशति:'
स्पष्ट है, जबकि आधुनिक सम्पादकों-प्रकाशकों ने इसमें से पंचविंशति' पद मनमाने ढंग से हटा दिया है। जो कि निराधार एवं नितान्त अनुचित प्रयत्न
है।
एकमात्र आरा (बिहार) की प्रति को छोड़कर, शेष समस्त प्राचीन पाण्डुलिपियों में 26 पद्य है, जबकि आरा की प्रति में तथा प्रकाशित समस्त प्रतियों में 25 ही पद्य हैं। ग्रन्थ का 20वाँ पद्य तथाप्यति तृष्णावान्...'' इनमें
छूटा हुआ है। 3. प्रकाशित प्रतियों में पाठ-दोषों की प्रचुरता है, अत: स्वाभाविकरूप से अर्थभेद
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