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विशेष-विचार किये बिना उन्होंने उस अशुद्ध पाठ को शुद्ध कर दिया। बौद्ध गुरु संशोधित-पाठ को देखते ही समझ गये कि 'हो न हो, इन छात्रों में कोई जैन अवश्य है।' निर्णयार्थ परीक्षा आयोजित की गयी। जिन-प्रतिमा को पैर से लांघने की कठिन परीक्षा, किन्तु अकलंक अपने बुद्धि-कौशल से उनमें बच गये; क्योंकि उन्होंने प्रतिमा पर एक धागा डाल दिया था। और चूंकि लेशमात्र भी परिग्रह होने पर जिनप्रतिमा पूज्य नहीं रह जाती है, अत: उस अमूज्य हो चुकी प्रतिमा को लांघने में उन्हें कोई दुविधा नहीं हुई। तथापि सूक्ष्म गुप्तचरी आदि पद्धतिय से अन्तत: इनका जैनत्व प्रकट हो गया और क्रूर बौद्धों ने इन दोनों भाईयों को बन्दीगृह में डाल दिया। अपने चातुर्य से ये बच तो निकले, किन्तु पता चलते ही बौद्धों ने अनुचरों को अश्वारूढ़ हो इन्हें खोजने व इनका वध कर देने की आज्ञा दे दी। कहाँ पैदल अकलंक-निष्कलंक और कहाँ तीव्रगामी अश्वों पर सवार सैनिक, अत: शीघ्र ही ये उनकी दृष्टिपथ में आ गये, किन्तु पकड़े जाने के पूर्व ही चपलतापूर्वक अकलंक हो एक सरोवर में कमल के पुष्पों-पत्रों की ओट में छिपकर बैठ गये और निष्कलंक भागते गये। उन्हें भागता देखकर अश्वारोही सैनिकों के भय से उस तालाब पर कपड़े धो रहा एक धोबी भी प्राणभय से निष्कलंक के साथ भाग खड़ा हुआ। सैनिकों को तो मात्र दो व्यक्तियों का पता था, मुखमुद्रा आदि का परिचय नहीं था; अत: उन्होंने शीघ्र ही घेरकर उन दोनों को मार डाला तथा 'आज्ञा का पालन हुआ' मानकर निश्चित हो वापस लौट गये।
इस प्रकार अकलंक की प्राणरक्षा तो हो गयी, किन्तु आँखों के समक्ष अपने निरपराध लघुभ्राता की निर्मम हत्या ने इनके अन्तस् में बौद्धों को निर्मूल करने की भावना दृढ़ कर दी। साथ ही संसार और शरीर की क्षणभंगुरता के विचार ने इनके संयमित जीवन में वैराग्य का प्रकर्ष जागृत कर दिया। और फिर ये निर्भीक हो जिनानुयायी श्रमणचर्या को अंगीकार भ्रमण करने लगे।
इसी क्रम में एक अन्य कथासूत्र आकर जुड़ता है। कलिंग देश के रत्नसंचयपुर नामक स्थान के बौद्ध धर्मामुपायी राजा हिमशीतल एवं उनकी जिनधर्मानुयायी रानी मदनसुन्दरी के अतद्वन्द्र का। रानी मदनसुन्दरी अष्टान्हिका पर्व में जिनेन्द्र रथयात्रा निकलवाना चाहती थी, किन्तु बौद्ध गुरु के भड़काने पर राजा हिमशीतल ने शर्त रख दी कि यदि कोई जैन विद्वान् या श्रमण वाद-विवाद में