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‘जाता हैं एवं इस ग्रंथ के मूलकर्ता हैं। (ii) संस्कृत टीकाकार केशववर्य लिखते हैं
स्वरूप-सम्बोधनाख्यग्रन्धस्यानम्य तन्मुनिम्। रचितस्याकलंकेन वृत्तिं वस्ये जिनं नमिम् ।। (मंगलाचरण) भट्टाकलंकदेवै: स्वरूपसम्बोधनं व्यरचितस्य । टीका केशववर्षे कृता स्वरूपोपलब्धिमवाप्तुम् ।। (समापन) अर्थात् अकलंकदेव द्वारा रचित स्वरूपसम्बोधन' नामक ग्रन्थ की वृत्ति मैं कहूँगा।...
भट्ट अकलंकदेव के द्वारा विरचित स्वरूपसम्बोधन' ग्रंथ की टीका केशववर्य्य के द्वारा स्वरूपोपलब्धि प्राप्त करने के लिए की गयी। ___(lil) 'सप्तभंगीतरंगिणी' के रचयिता विमलदास ने भंगों के निरूपण में (पृष्ठ 79 पर) 'स्वरूपसम्बोधन-पञ्चविंशतिः' का एक पद्य (प्रमेयत्वादिभिधर्म:..) “तदुक्तं भट्टाकलंकदेवैः''- कहकर उद्धृत किया।
उपर्युक्त तीनों प्रमाणों से स्पष्ट है कि दोनों टीकाकारों महासेन पण्डितदेव एवं केशववर्य ने तथा 'सप्तभंगीतरंगिणी' के कर्ता विमलदास-इन तीनों मनीषियों ने स्पष्टतया 'स्वरूपसंबोधन-पंचविंशतिः' के ग्रन्थकर्ता के रूप में भट्ट अकलंकदेव का नाम घोषित किया है।
यद्यपि अकलंकदेव के नाम से कई आचार्य एवं ग्रन्थकार हो चुके हैं, किन्तु प्रस्तुत ग्रन्ध के रचयिता तत्त्वार्थराजबार्तिक, न्यायविनिश्चय जैसे महान् ग्रन्थों के प्रणेता महान् तार्किक आचार्य भट्ट अकलंकदेव ही हैं - यह बात उपर्युक्त सभी मनीषियों ने इनके नाम के साथ 'भट्ट पदवी का प्रयोग करके संकेतित कर दी है। तथा ग्रन्थ की भाषा, शैली आदि भी इस तथ्य को परिपुष्ट करती हैं (विशेष दृष्टव्य, 'प्रस्तावना' में ग्रन्थ-विषयक विवेचन)। अत: सर्वप्रथम ग्रन्थकर्ता भट्टअकलंकदेव का जीवन परिचय एवं कृतियों का परिचय यहाँ अपेक्षित है। ___ भट्ट अकलंकदेव- कलिकालसर्वज्ञ आचार्य समन्तभद्र के उपरान्त बौद्धों के भीषण प्रहारों से आहत जैनदर्शन एवं न्याय की न केवल रक्षा करने वाले, अपितु बौद्धों के धर्मकीर्ति सदृश आवार्यों से जमकर लोहा लेने वाले, 'भट्ट' उपाधि से विभूषित तार्किकशिरोमणि आचार्य अकलंकदेव एक ऐसे मिथक बन चुके थे, कि