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अन्त
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की अनेकत्र अनेकों पाण्डुलिपियाँ रहीं होंगी, किन्तु पक्की सूचना एवं विवरण मात्र दो पाण्डुलिपियों का ही उपलब्ध है, जो कि निम्नानुसार वर्णित है
आरा (जैन सिद्धान्त भवन) की प्रति - जैन सिद्धान्त भवन, आरा (बिहार) के ग्रन्थागार में प्रस्तुत ग्रन्थ की एकमात्र पाण्डुलिपि उपलब्ध है, यह मूलमात्र है तथा इसकी पद्य संख्या 25 है। इसमें भी 1 पद्य (तथाप्यति तृष्णावान्. ......... पद्य क्र. 20) छूटा हुआ है। प्रतीत होता है कि इसी प्रति के आधार पर अद्यावधि प्रकाशित इस ग्रन्थ के मूलपाठ प्रकाशित किये गये हैं, क्योंकि उनमें भी यही एक पद्य अनुपलब्ध है। फलत: उनकी भी पद्य संख्या 25 रह गयी है। इस प्रति का प्रारंभ एवं अन्त का विवरण निम्नानुसार हैप्रारम्भ- मुक्तामुक्तैकरूपो यः कर्मभि: संविदादिना।
अक्षयं परमात्मानं ज्ञानमूर्ति नमामि तम् ।। 1 ।। “इति स्वतत्त्वं परिभाव्य वाङ्मयम् । य एतदाख्याति श्रुणोति चादरात् ।। करोति तस्मै परमात्मसम्पदम् । स्वरूप - सम्बोधन - पञ्चविंशतिः ।। 25 ।। अकरोदार्हितो ब्रहमसूरि - पंडितसद्विजः ।
स्वरूप-संबोधनाख्यस्य टीका कर्णाटभाषया ।।" टिप्पण- इसके प्रथम पद्य में जो 'संविदादिना' पद है, वह संस्कृत टीकावाली प्रति में प्राप्त होता है, जबकि कन्नड़ टीकावाली प्रति में इसके स्थान पर 'संविदादिभिः' पद प्रयूक्त हुआ है। अत: प्रतीत होता है कि इस प्रति के मूल में संस्कृत टीकागली प्रति के मूलपाठ रहे हैं। तथा इस प्रति की आधार प्रति जो भी रही होगी, उसमें कोई कन्नडभाषायी टीका भी रही होगी, जिसके कर्ता कोई ब्रहमसूरि पंडितसद्विज थे। किन्तु जैसे मूडबिद्री ग्रन्थागार के ग्रन्थांक 101 वाली प्रति में जो इस ग्रन्थ का मूलपाठ मान है, वह संस्कृत टीका के आधार पर लिखे जाने से संस्कृत टीकाकार का मंगलाचरण उसमें दिया गया है - इसी प्रकार इस टीका प्रति का प्रशस्ति पद्य इसमें लिपिकार ने लिख दिया है। टीका इसमें नहीं है। इसमें लिपिकार का नाम, लेखन-संवत् आदि अन्य कुछ भी उल्लेख प्राप्त नहीं होते हैं।
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1. द्रष्टव्य, जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावलि, भाग 1, पृष्ठ 68, ग्रंधांक 341.