Book Title: Swaroopsambhodhan Panchvinshati
Author(s): Bhattalankardev, Sudip Jain
Publisher: Sudip Jain

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Page 10
________________ सम्पादकीय अध्यात्मतत्त्वप्रधान प्रस्तुत दार्शनिक ग्रन्थ की मूलभाषण अति प्रौढ़ एवं प्राञ्जल संस्कृत है, तथापि उसमें पाण्डित्य-प्रदर्शन वाले कष्टकल्पनारूप जटिल भाषा-प्रयोगों का अभाव होने से इसकी विषयानुरूपता बनी रही है। इसकी दो टीकायें प्रस्तुत संस्करण में दी जा रही हैं, और दोनों ही टीकायें प्रथम बार प्रकाशन-आलोक में आ रही हैं / प्रथम टीका की भाषा प्राचीन कन्नड़ (हड़े कन्नड़) है, तथा दूसरी टीक' की भाषा संस्कृत है। दोनों टीका भाण की दृष्टि से बालबोधिनी कही जा सकती हैं। इस ग्रन्थ के पाठ-सम्पादन कार्य में प्रथमत: तो अति सन्तोष प्रतीत हुआ कि इस ग्रंथ का एकाधिक बार मूलरूप में प्रकाशन व अनुवाद कार्य हो चुका था, अत: लगा कि संभवत: मूतग्रन्थ के पाठ-सम्पादन में अधिक समस्या नहीं रहेगी तथा पाठभेद भी प्राय: नगण्य ही रहेंगे। परन्तु ताड़पत्रीय प्रतियों से मिलान करने पर पर्याप्त पाठ-भेद मिले। यहाँ तक कि पञ्चविंशति' इस नाम की सार्थकता सिद्ध करने के लिए इस ग्रन्थ के 25 पद्य ही आज तक प्रकाशित हुए, जबकि मूल में पद्यों की संख्या 26 है। दोनों टीकाकारों ने भी परस्पर पाठभेदों का प्रयोग किया है, एवं तदनुसार ही टीका की है। किन्तु ताड़पत्रीय प्रतियों की प्रचुर परिमाण में उपलब्धता ने पाठ-सम्पादन कार्य को अपेक्षाकृत सरल बना दिया है। प्रतियों का परिचय- मूडबिद्री (कर्नाटक राज्य) स्थित श्रीमती रमानी जैन शोध संस्थान' के ताड़पत्रीय ग्रन्थागार में प्रस्तुत ग्रन्थ की कुल बाईस (22) प्रतियाँ हैं, जो कि ग्रन्थांक क्रमांक 26, 101, 134, 162, 254, 316, 462, 492, 509,514. 529, 552, 755, 771,775 एवं 819 में हैं। इनमें कई ग्रंथों में इस ग्रन्ध की दो-तीन प्रतियौं तक है।' इन बाईस प्रतियों में दो प्रतियाँ अपूर्ण हैं, शेष बीस पूर्ण हैं / इन 1. विस्तृत विवरण के लिए भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित 'मूडबिद्री कन्नड़ ताड़पत्रीय ___ ग्रन्थसूची' शीर्षक केटेलक देखा जा सकता है। VI

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