Book Title: Swaroopsambhodhan Panchvinshati
Author(s): Bhattalankardev, Sudip Jain
Publisher: Sudip Jain

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Page 9
________________ अनेकत्र उपकृत किया; वे हैं आचार्यश्री विद्यानन्द जी। उनके प्रति किसी प्रकार की कृतज्ञता-ज्ञापन मेरे औद्धत्य का प्रदर्शन होगा, अत: उनके चरमोल्लेख के साथ ही इस चर्चा को विश्रान्त करता हूँ। _ 'अमृताशीति' के प्रकाशन के बाद कई बातें सीखने को मिलीं, उनका यथासंभव उपयोग इस बार किया है; तथापि आचार्यों का ज्ञान अगाध-सिन्धु है, जिसे कि क्षुद्र क्षयोपशमरूपी दुर्बल भुजाओं से पार कर सकना असंभव है। फलत: अनेकों श्रुटियाँ संभव है; सुधी पाठक उन्हें सुधारें एवं मुझे भी अवगत करावें, ताकि मैं भी अपने अज्ञान-मल का परिमार्जन कर सकूँ। जो श्रेयः है, वह तो मात्र मूलग्रन्थकर्ता एवं टीकाकार आचार्यों का है तथा जो दोष है, सो मेरी अज्ञानता की देन है, सो मैं विज्ञजनों का अपराधी हूँ। तथापि प्रयास जैसा बन पड़ा, आप सब की सेवा में प्रस्तुत है। कृपया अपने विचारों/प्रतिक्रियाओं से मुझे अवगत कराके अनुगृहीत करें। प्रकाशक व मुद्रक संस्थाओं के सहयोग का सधन्यवाद स्मरण करता हुआ विराम लेता हूँ। दीपमालिका, 23 अक्टूबर, 1995 डॉ० सुदीप जैन

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