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नयनन्दि विरचित
सुदर्शन-चरित
[अपभ्रंश काव्य सुदंसणचरिउ का हिन्दी अनुवाद ] संधि १
१. पंच नमोकार मंत्र
लोक में सर्व अरहंतों को नमस्कार । सिद्धों को नमस्कार । आचार्यों को नमस्कार । उपाध्यायों को नमस्कार । साधुओं को नमस्कार ।
इस पंचनमोकार मंत्र को पाकर एक ग्वाल भी सुदर्शन हो गया और मोक्ष को गया । उसी सुदर्शन के उत्तम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप चतुर्वर्ग को प्रकाशित करनेवाले चरित्र का व्याख्यान करता हूँ ।
जिनके रूप को देखते हुए इन्द्र विस्मित मन हो गया और तृप्ति को प्राप्त न हुआ; जिनके जन्माभिषेक के समय चरणांगुष्ठ से शैलराज सुमेरु भी चलायमान हो उठा, पृथ्वी कांप उठी, समुद्र उछल उठे, पर्वत डोलने लगे, गजेन्द्र चीत्कार करने लगे, सिंह दूर हट गये, फणीन्द्र जाग उठे, आकाश में चन्द्र और सूर्य तत्काल हँस उठे, महान् दिग्गज उत्त्रस्त और लज्जित हो गये, विद्याधर और सुरेन्द्र आशंकित हुए; जिनपर अनुरक्त होकर सिद्धि रूपी सुन्दरी ने मानो तपश्री रूपी दूत को भेजा, तथा जिनके केवलज्ञान में यह समस्त महान् जगत् हस्तामलकवत् दिखाई देता है; ऐसे सन्मति जिनेन्द्र के चरणारविन्दों तथा शेष जिनेन्दों की भी वन्दना करके एक दिन प्रफुल्लित मुख होकर नयनानन्दि ( नयनन्दि ) अपने मन में विचार करने लगे कि सुकवित्व, त्याग और पौरुष, इन तीन के द्वारा ही भुवन में यश कमाया जाता है ।
२.
कवि विनय व जम्बूद्वीप-भरत क्षेत्र
कारण मैं त्याग भी
कवित्व में तो मैं अप्रवीण हूँ और धनहीन होने के क्या कर सकता हूँ ? तथा सुभटत्व तो दूर से ही निषिद्ध है । इस प्रकार साधनहीन होते हुए भी मुझे यश का लोभ है । तो मैं अपनी शक्ति अनुसार पद्धडियाबंध में एक अपूर्व काव्य की रचना करूँ । यदि चित्त में जिनेन्द्र भगवान् का संस्मरण किया जाय, तो कविता में स्वयं ही मति प्रवृत्त होने लगती है । क्या कमलपत्र पर पड़ा हुआ जलबिन्दु भी मुक्ताफल के समान पवित्र शोभायमान नहीं होता ? ऋषभादि तीर्थंकरों के तीर्थ में क्रमशः अन्तिम तीर्थंकर पर्यन्त सुप्रसिद्ध
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