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८. २६] सुदर्शन-चरित
२२१ ऐसे और भी सैकड़ों दृष्टान्त देकर उस हंसगामिनी कामिनी ने नानाप्रकार के उपायों से पुनः पुनः वणिग्वर को क्षोभित करने का प्रयत्न किया।
२८. अभया की लुभाऊ काम-चेष्टाएँ वह जनमनोहारी विविध उत्तम आभूषगों को धारण करके उसके निकट आती, भौंहें मरोड़ती, अधर काटती, विशाल सघन स्तन उघाड़ती, और तत्क्षण उन्हें छुपा लेती; नाभि की ओर देखती, पुनः पुनः नीवि-बंधन को शिथिल करती; केश छोड़ती, अंग मरोड़ती, कटाक्ष देती, मुख विकसाती, पांव लगती और फिर
आलिंगन करती; धीरे-धीरे नख घट्टन करती, व अधर चाटती; मनमाने अव्यक्त वचन बोलती तथा भले प्रकार चुंबन करती। ऐसी व अन्य नाना प्रकार की काम चेष्टाओं से यद्यपि उसने क्षोभ उत्पन्न करने का प्रयत्न किया, तो भी वह जिनदासी का पुत्र सुदर्शन चलायमान नहीं हुआ और ऐसा स्थिर रहा, जैसे मानो वह काष्ठ का हो गया हो। (यह निश्चय से मदन छंद कहा गया है)। तो भी अभया हटी नहीं। वह नाना प्रकार के उपाय सोचती ही रही, जिस प्रकार स्वगंगा कैलाश के आसपास घूमती रही।
२९. अभया की सुदर्शन को भर्त्सना फिर वह रुष्ट हो उठी, और डाँटने लगी-रे दर्पिष्ठ, ढीठ, शिथिल अधरोष्ठ वाले, पिशुन ( शैतान ) के अवतार, रे रे किरात, तूने इतना पुण्य कहां कमाया है, जो तू सन्तोष भर मेरे मुख का चुंबन कर सके ? क्या तूने देवस्थान का, ब्रह्मा या भानु का पूजन किया है, जो तू अपने दांतों से मेरे ताम्रवर्ण अधरबिंब को काटे व नाभि में रति करे ? क्या तूने ऐसा भृगुपात किया है, जो तू नखों से भग्न रति सुखदायी मेरे सघन स्तनों से लग सके ? क्या तूने अन्य जन्म में उत्तम वैष्णव धर्म धारण करके गहन वन का लंघन कर, अपना मथन किया है, व कुरुक्षेत्र का ग्रहण किया है, जो तू , रे हताश, वणिग्दास, मेरे केशों का ग्रहण पा सके ? क्या तूने सैकड़ों दुखों का दलन करने वाले गजकनखल में अखंड पितृपिंड पाड़ा ( दिया ) है, जो तू नृप के चित्त का दमन करने वाले विशाल और रमणीक मेरे रमणस्थान का आरोहण करे ? उसे तू पा ही कहां सकता है ? क्या तू ने रमणीक व घोर तप संचय किया है, जो तू मेरे लटकते हुए हार वाले सुन्दर उरस्थल पर आघात करे ? इसके भी ऊपर अब मैं तुझ से क्या कहूं ? तूं मुक्तभाव से ( धर्म ध्यान का बंधन छोड़ कर ) अपना मुख भी तो देख। ( इसे स्पष्ट चन्द्रलेखा छंद जानो)। मैंने तुझसे साम व भेद नीति से बात की ; तुझे फटकारा भी; तो भी तू कुछ नहीं बोलता। तू ने अपने मन में यह कैसा दृढ़ असा आग्रह किया है, जो तू अभी भी मुझ पर ( काम के ) बाण छोड़ रहा है ?