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११. २२] सुदर्शन-चरित
२५६ ( यह अपने विषम पदों से मनोहर, मणिशेखर नामक छंद कहा गया)। फल ( तीर का अग्रभाग) और सुन्दर पंख सहित सीधा वाण तथा दान व सुपात्रों सहित नर, कहाँ, किसे नहीं सुहाता ? परन्तु धनुष की प्रत्यंचा से छूटा हुआ शर, और धर्मगुण से हीन नर, भुवन को संताप देता है ॥२१॥ २२. निशाचर द्वारा वर्षा-वाण का प्रयोग व व्यंतरी का पराजय
वह ग्रीष्म शर, जल में, स्थल में, व गगन में प्रलय की अग्नि के समान प्रगट हुआ। तब उस निशाचर ने भी कुछ हँसकर उसे वर्षावाण से विनष्ट कर डाला। वह अप्रमाण वाण जब चला, तो आकाश में जा मिला। उसके कारण घनपटल अत्यन्त चंचल होकर गड़गड़ाने लगा, मानों वह पृथ्वीमंडल पर, व लोगों के घरों पर गिर रहा हो। उसे सुनकर, अपना सिर धुनते हुए, अग्नि रोनेचिल्लाने व नाचने लगा, तड़तड़ाने लगा और तट पर गिरने लगा। पर्वतों को फोड़ने व लोगों को डराने लगा। तो भी पर्वतों के शिखर पर, बहुत से कन्दराओं में वह प्रचुर जलसमूह प्रसार करता हुआ व बरसता हुआ रुकता नहीं था। समस्त जन भयविकल हुए कहाँ जायँ ? तब वह व्यंतरी उस निशाचर से डरी
और थर्राई ; एवं वह दपिष्ट भागी, जिस प्रकार कि प्रकाशमान सूर्य के सम्मुख निशा नष्ट होती है। तब वह मुनिवर अपने हृदय में विधिवत् नयों के व्याख्यान से जगत् को आनन्दित करनेवाले, देवों, मनुष्यों तथा नागों से सेवित जिनदेव के चरणों का स्मरण करने लगा।
इस प्रकार माणिक्यनन्दि त्रैविद्य के शिष्य नयनन्दि द्वारा विरचित पंचणमोकार फल को प्रकाशित करने वाले सुदर्शनचरित में, सुदर्शन मुनि की कथा सुन कर देवदत्ता का अपने घर में उनको क्षोभ पहुंचाना, फिर श्मशान में अपने जन्मान्तर का स्मरण कर अभया व्यंतरी द्वारा उपसर्ग किया जाना, इनका वर्णन करने वाली ग्यारहवीं संधि समाप्त ।
॥ संधि ११ ॥