Book Title: Sudansan Chariu
Author(s): Nayanandi Muni, Hiralal Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa

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Page 307
________________ २५८ नयनन्दि विरचित [ ११. २०० को सहन कर स्वकार्य सिद्ध किया था। उन समस्त मुनियों ने जो आदर्श दिखलाया है, उससे मैं भी विचलित नहीं होऊँगा। २०. रक्षक निशाचर व्यंतरी को ललकारता है ऐसे समय में वहां भृकुटि से भीषण, असाधारण रोषपूर्ण नेत्रयुक्त, द्वितीया के चन्द्र सदृश डाढ़ों वाला, हाथों में शस्त्र लिए वही निशाचर आ पहुँचा। उसने हांक लगाई-"री पापिनि, दुष्ट बुद्धि, निहीन, ठहर-ठहर; अब तू कहां जायगी ? अथवा तू अभी जीती हुई भाग जा, नहीं तो तेरे प्राण ले लूँगा।" तब उस व्यंतरी ने दर्प के साथ कहा-“रे पिशाच, आ-आ। ले मेरे प्राण । अरे मूर्ख, तू किस साहस से ऐसा विचारहीन हो रहा है ? इस नगोड़े के लिए प्रमाद मत कर। मैं तेरे प्राण ले लूँगी। रे हताश, भाग जा, भाग जा! किन्तु रे पापराशि, अब तू मेरे पास से कहां जायगा? तेरे सिर के ऊपर यह सजा हुआ दुर्निवार, प्राणहारी कालवज्र क्या न पड़े?" ऐसा कहकर उस व्यंतरी ने अपने हाथ में विद्युतपुंज रूपी तेज व उग्र खङ्ग लेकर उसके उरस्थल पर प्रहार किया, जिससे वह निशाचर अल्प मूर्छा को प्राप्त हो गया। किन्तु पुनः चेतना प्राप्त करके उस राक्षस ने कहा "री निहीन व्यंतरी, मुझ पर तूने जो निर्दयता के साथ असाध्य आघात किया, उससे मेरा वक्षस्थल भिद गया। अब उसका कुछ बदला ले। आ आ।" फिर उसने उस पापिनी पर प्रबल दिव्य शस्त्र छोडे। किन्तु वे सब उसे असार ( निष्तेज ) होकर लगे। तब उस निशाचर ने रोष के वशीभूत होकर अपने धनुष पर दीर्घ शिशिर बाण रक्खा, और उसे सहसा छोड़ दिया ; जिस प्रकार कोई दुःखी-चित्त होकर अपने सिर को हाथ पर रक्खे और दीर्घ ठंडा स्वर छोड़े। २१. शिशिर और ग्रीष्म वाणों का प्रयोग वह अति श्वेत वाण ऐसा दौड़ा, जैसे मानों हिमकणों के मिष से किसी सत्पुरुष का अति उज्ज्वल यश प्रसार कर रहा हो। तथा उसने ऐसा रोमांच प्रगट किया, जैसे मानों वह अभिनव प्रणय कर रहा हो। उस शिशिर वाण के प्रहार से भिदकर वह व्यंतरी बोली-“यह सहसा शीत की वाधा उत्पन्न करनेवाली, सर्व दोषों की खान तेरी शक्ति मैंने देख ली। तू पुरुषकार ( पौरूष ) से वर्जित है। यद्यपि तू भयत्यक्त होकर अपलाप (प्रलाप ) कर रहा है, किन्तु व्याघ्री के पंजे में पड़कर हरिण जीता हुआ कहाँ जायगा ? अभी भी तू , जबतक मैं तेरा सिर नहीं तोड़ती तबतक, अपने घर भाग जा, और शीतल जल पी।" ऐसा कहते ही उस व्यंतरी ने अपनी प्रभा से चमकता हुआ ग्रीष्म नामक बाण छोड़ा। उसके प्रभाव से धूलि-प्रवाह धगधगाने लगा। रज का बवंडर घूमने लगा। कीचड़ में शूकर लोटने लगा। कुंडी का जल सूखने लगा, और दावानल जलने लगा। दुस्सह जलतृष्णा से जिह्वादल फूटने लगा, और लोग तरुतल की शरण लेने लगे।

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