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संधि १२ १. माया-गज का निर्माण और उसपर आरूढ हो सुरेन्द्र का आगमन
तत्पश्चात् वहां उस अवसर पर सातवें दिन मनुष्यों और देवों के वंदनीय, सुदर्शन मुनीन्द्र के घातिचतुष्क (चार घातिया कर्म ) का विनाश हो गया, और उन्हे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। जब उन मुनिराज को अविकल केवलज्ञान हुआ, तब देवलोक में सुरेन्द्र ने एक दीर्घशुंड गजवर को आज्ञा दी। उसने सुविस्तीर्ण, मनोहर शरीर धारण किया। उसने बत्तीस मुख बनाये और उनके दूने अर्थात् चौंसठ मदरक्त नेत्र । प्रत्येक शोभा-सम्पन्न मुख में आठ-आठ दांत थे, और फिर प्रत्येक दांत में एक-एक जलचरों से शोभायमान महान् सरोवर था। प्रत्येक सरोवर में एक-एक निर्मल कमलिनी थी, और प्रत्येक कमलिनी में बत्तीस कमल थे। प्रत्येक कमल में बत्तीस पत्र थे, और प्रत्येक पत्र पर परमेष्ठी भक्त, रसभाव में कुशल, शरीर से विकसित बत्तीस बत्तीस अप्सराएँ नृत्य कर रहीं थीं। करीन्द्र ने जितना जम्बूद्वीप का विस्तार है, उतना अपने शरीर का विस्तार किया। उस गजेन्द्र पर आरूढ़ होकर सुरेन्द्र आया और अपने मन में अनुराग सहित इस प्रकार स्तुति करने लगा।
२. इन्द्र द्वारा सुदर्शन केवली की स्तुति जय हो, हे जनमनहारी; जय हो, हे भवभयहारी। जय हो, हे महायशधारी; मुनिगणरूपी नभ के चन्द्र । जय हो, हे कामदेव के सुदृढ़ विनाशक । जय हो, हे मेघध्वनिकारक ; जय हो, हे उत्तमपद को प्राप्त व श्रेष्ठों द्वारा चरणों में नमस्कृत। जय हो, हे दया के पथ को निर्माण करने वाले ( अहिंसोपदेशक) जय हो, हे तपरूपी रथ के वाहक । जय हो, हे अन्धकाररूपी वन के दाहक । जय हो, हे नयरूपी जल के हृद (कुण्ड )। जय हो, हे सैकड़ों भवों का मथन करनेवाले। जय हो, हे इन्द्र नमित। जय हो, हे शम और दम में रत। जय हो, हे रज ( कर्ममल ) से रहित । हे भगवन, आप करूणारूपी रात्रि के चन्द्र हैं, कलिकाल के मल रूपी अन्धकार को हरण करनेवाले हैं, देवों और मनुष्यों के समूहों द्वारा वंदित हैं; भव्यरूपी कमलों के दिवाकर हैं, और गुणों के रत्नाकर हैं। हे भगवन्, जगत् में कौन ऐसा है, जो आपका मन में स्मरण न करता हो ? ३. इन्द्र की स्तुति हो जाने पर कुवेर द्वारा समोसरण की रचना
आप नीराग हैं, और मान से युक्त हैं। आप मोहरूपी अंधकार के लिए सूर्य हैं। आप बुद्ध है, सिद्ध हैं, निग्रन्थ हैं। आप मित्रों और शत्रुओं के लिए मध्यस्थ हैं। आप शूरों में शूरवीर हैं। आप ( ज्ञान के ) गंभीर पारावार हैं।