Book Title: Sudansan Chariu
Author(s): Nayanandi Muni, Hiralal Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa

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Page 306
________________ ११. १६] सुदर्शन-चरित २५७ और अपने मुख से प्रचंड अलाप छोड़ती हुई बोली-“पूर्व काल में भी मैंने तुझे श्मशान से मंगवाकर मनाया। फिर प्रभात होने पर पुकार मचाकर दंभ से तेरा अपमान कराया। उस समय एक राक्षस ने आकर तेरी रक्षा की। किन्तु अब कौन तेरी रक्षा करता है ?" ऐसा कहकर वह अक्षय दुःखपूणे पाताल में गई और अपने बाहुदंडों से उसने धरापीठ को ऊँचा उठा लिया, जिससे ऊँचा महापर्वतचक्र भी कंपित हो गया। इससे अपने गंडों में मद बहाते हुए हाथी भी संत्रस्त हो उठे, और उनके चीत्कार शब्द से सिंह रुष्ट हो उठे। सिंहों की दहाड़ से दिशा-चक्र आपूरित हो गया। इससे सागर पर्यन्त गिरते हुए दिग्गजों ने चीत्कार छोड़ी। उनके गिर पड़ने से भूमंडल डोलने लगा। उससे झल (तरंगों) युक्त सातों सागर उछलने लगे। उनकी कल्लोल-माला द्वारा व्योंमांगन का उल्लंघन हो गया। इससे चन्द्र, सूर्य व तारामंडल झटपट झकझोर गये। इस प्रकार मानों अकाल ( असमय ) में ही प्रलयकाल उपस्थित हो गया। (इस प्रकार यह मंदारदाम छंद स्पष्ट कहा गया)। अभया व्यंतरी ने त्रैलोक्यमंउल को संतापित कर डाला। तथापि वह उस ध्यानस्थ मुनि के एक रोम को भी कंपित न कर पाई। १९. सुदर्शन का पूर्व उदाहरणों का स्मरण और स्वयं दृढ़ रहने का निश्चय वह श्रमण चिन्तन करने लगा-"सूर्य गगनतल का भूषण है। प्रणय-रोष स्नेह का, मद करिवर का, कलश धवलगृह का, और उपशम तप का भूषण है।" वह अपने कुलरूपी नभस्तल का चन्द्र ऋषि पुनः सोचने लगा, कि श्रुतधर मुनिवर को किस प्रकार उत्तम क्षमा, मार्दव व आर्जवभाव से लाभ हुआ। अपने विमान पर आरूढ़ विद्युदृढ़ व्यंतर ने संयमी को दुर्गम पंचनदी संगम पर क्षोभ पहुँचाया, किन्तु वह संयमी क्षुब्ध नहीं हुआ। फिर कामदेव को जीतनेवाले बालि भट्टारक को दशानन ( रावण ) ने रुष्ट होकर, व भृकुटि खेंचकर, पर्वत से उतरकर व उसके तल में प्रवेश कर, अष्टापद पर्वत को उठाया। किन्तु फिर भी वह मुनिश्रेष्ठ चलायमान न हुआ। उसी प्रकार गजकुमार खीलों से कीले जाने पर भी उद्वेलित नहीं हुआ। पर्वत पर कुलभूषण मुनिवरों ने एक असुर द्वारा किए गए उपसर्ग सहे और क्षमा धारण की। प्राचीन काल में दंडक राजा ने अत्यन्त कषाय के वशीभूत होकर पृथ्वीमंडल के चन्द्र पांच सौ मुनीन्द्रों को शस्त्रों से हला और यंत्रों से पेला। सीतांगदेव ने माया वेश बनाकर राघव (रामचन्द्र ) का उपसर्ग किया, तो भी वह उनका योग भंग नहीं कर सका। कौरव-कुल के योद्धाओं ने तप्तलोह से जो उपसर्ग किया, उसे आत्मसंयम में प्रवृत्त पांडुपुत्रों ने सहन किया। दुष्ट शठ कमठ ने अभंगरूप से लगातार दिन-रात पार्श्वनाथ का उपसर्ग किया; किन्तु उन्हें उससे मोक्ष का ही लाभ हुआ। इसी प्रकार अन्यान्य गुणधारी यतिवरों ने ईर्षारहित भाव से मनुष्यों और देवों द्वारा किये गये उपसर्गों ३३

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