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सुदर्शन-चरित
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( व्याकरण ) में पदों का समास सुलभ है । आगम में धर्मोपदेश सुलभ है । सुकविजनों में विशेष बुद्धि सुलभ है । मनुष्य भव में प्रिय कलत्र सुलभ है । किन्तु बड़ी दुर्लभ है, जिन शासन के अनुसार एक अति पवित्र वस्तु, जिसे मैं पहले कभी न प्राप्त कर सका । उस सम्यक्चारित्र को मैं कैसे नष्ट कर दूँ ? इस प्रकार विकल्प करता हुआ, जब सुदर्शन अव्याकुलचित्त से स्थित था, तब अभया देवी व्याकुल होकर अपने मन में पुनः पुनः सोचने लगी ।
३३. अभया का पश्चात्ताप
कहाँ वसन्त और कहाँ वह उपवन रहा ? कहाँ नरेन्द्र क्रीड़ा को गया ? कहाँ मैं हर्ष सहित वहाँ को चली ? और कहाँ उस दुष्टा ने हर्ष से उल्लसित होकर वह बात कही ? कहाँ से पंडिता इस मूर्ख को ले आई ? हाय, मैंने इस होते हुए कार्य को नहीं समझा। हाय, मैंने ऐसी भावना भाई जिससे मरण और कर्मबंधन की प्राप्ति होती है । मुझे कपिला ने जब इस ओर प्रेरित किया, तभी पंडिता ने मुझे रोका। मैं इस ( सुदर्शन ) के गुणों को जानती हुई भी निर्गुण होकर इस दुराग्रह में क्यों लग पड़ी ? भले ही कोई अपने गुणों के कारण काम का विषय होने से रुचिकर हो, किन्तु यदि वह अपने वश का नहीं, तो उसे छोड़ देना उचित है; जिस प्रकार कि प्रत्यंचायुक्त धनुष के सदृश बाण भी रुचिकर होता है, तो भी चूँकि वह मुट्ठी में नहीं समाता, इसलिए छोड़ दिया जाता है । इसके पास न खाना सुहाता है और न पीना योंही गले की दाह से मर जाना पड़ेगा । परदारगमन बड़ा विरूद्ध आचरण है, तथा दुस्सह नरक के दुःख का हरकारा है । अतएव जब तक कोई कुछ भी जान नहीं पाया, तब तक इसे ( सुदर्शन को ) वहीं छुड़वा देना उचित है । ऐसा विचार कर घबराहट के साथ अभया महादेवी ने वणिग्वर को चारों ओर से लपेट लिया, जैसे मानों चंदन वृक्ष विष की लता ने वेष्टित कर लिया हो ।
३४. अभय का कपट-जाल
उसे शीघ्र उठाकर ज्योंही वह चली, त्योंही रात्रि व्यतीत हो गई और सूर्य उदित हो गया । प्रातःकाल हुआ देख वह तुरन्त घबरा उठी और उसने तत्काल उस चरमशरीरी सुदर्शन को अपने शयन पर जा डाला। जिस प्रकार चन्द्रनखा लक्ष्मण से रुष्ट हुई थी, तथा जिस प्रकार पहले धृष्टा वीरवती दत्त
; व जिसप्रकार कनकमाला प्रद्युम्न से क्रुद्ध हुई थी, उसी प्रकार अभया वणीन्द्र के प्रति विकल हो उठी । उसने द्वितीया के चन्द्र के आकार सूचिमुखरूप अपने हाथों के नखों से अपने शरीर को फाड़ डाला । उसके रुधिर से विलिप्त सघन स्तन ऐसे दीखने लगे, जैसे मानों सुवर के कलश केशर से सींचे गये हों। अपने हाथों से छाती पीटती हुई वह हताश यह कहती हुई झटपट उठी - "यह संड