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संधि १० १. जिन-मन्दिर का आलंकारिक वर्णन उस भयानक श्मशान में परम प्रशंसा को प्राप्त करके वह वणीश्वर सुदर्शन अपने तामस रहित मन से चिन्तन करने लगा-जहां मरण और जन्म रूपी अथाह जल भरा है, जिसमें बहुत सी कपटरूपी भंवरें विद्यमान हैं, जहां नानाप्रकार के चित्तरूपी घोर वातों की ध्वनि हो रही है, जो राग और द्वेष रूपी जलचरों से भरा हुआ है, जो क्रोध व लोभ रूपी बड़वानल से भीषण है, एवं दुर्गति रूपी लहरों से युक्त है, ऐसे इस संसाररूपी रौद्र समुद्र में जीव पुण्यों के बिना धर्मरूपी रत्न की प्राप्ति नहीं कर पाता। देवों और मानवों की प्रशंसा प्राप्त करनेवाला सुदर्शन इस प्रकार चिन्तन कर व पुत्र को अपना गृहस्थ पद देकर लोगों सहित जिनालय में पहुंचा। वह जिनालय अशोक वृक्ष तथा यक्ष और यक्षिणियों से सुन्दर था ; जैसे मानों कुवेर का कीड़ा-मन्दिर हो, जो शोक रहित यक्ष यक्षिणियों से सुन्दर दिखाई देता है। वह रोहिणि ( सोपान पंक्ति ) से मनोहर तथा बड़े-बड़े चंदोवों व उनके सितारों से देदीप्यमान होता हुआ आकाश के समान दिखाई देत। था, जो रोहिणी नक्षत्र से मनोहर तथा पूर्णचन्द्र एवं ताराओं से प्रकाशमान हो। जो चक्रेश्वरी देवी से अलंकृत तथा पवित्र योगियों के समूह से शोभायमान होता हुआ उस सरोवर के समान था, जो चकवा-चकवियों से सुन्दर व उत्तम हंसयूगलों के समूहों से शोभायमान हो। वहां घंटों की घर्घर ध्वनि एवं दिव्य कुंभ, शंख, तूर्य और चामरों की शोभा हो रही थी, जिससे वह एक हस्ती के समान प्रतीत होता था। वहां श्रावकों का गमनागमन हो रहा था; अतएव वह एक वन के समान प्रतीत होता था, जहां श्वापद ( वन्यपशु ) आते-जाते दिखाई देते हैं। वह मोक्ष-मार्ग दिखाने वाला था, अतएव वह एक धनुष के समान था, जो वाण छोड़ने के मार्ग को लक्ष्य करता है। उस जिनालय के दर्शन कर सुदर्शन बहुत हषित हुआ। (यह निःश्रेणी नामक छंद कहा गया )। उस सुन्दर जिनमन्दिर में, अपने कुलरूपी नभस्तल के चन्द्र वणीन्द्र ने, मोह को जीतनेवाले जिनेन्द्र की स्तुति प्रारम्भ की।
२. जिनेन्द्र-स्तुति नमस्कार करते हुए देवों के मस्तक पर के मुकुटों के मणियों की किरणों से चुम्बितचरण, भगवन् , तुम्हारी जय हो। हे समस्त त्रैलोक्य में धर्म की हलचल मचाने वाले, जय हो आप की। जय-जय, हे केवलज्ञाननिधि । जय हो, हे भव्यरूपी कमलों को प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य । हे इन्द्रियरूपी शत्रु-योधाओं का दलन करनेवाले, जय हो। हे परमार्थ को जाननेवाले जय हो । जय हो, जरा और मरण का विनाश करनेवाले। जय-जय-जय, हे निर्ग्रन्थ देव। जय हो आपकी, जो निर्दोष सूर्य की किरणों के समूह के सदृश शरीर की प्रभा को धारण करते हैं,