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१०.३] सुदर्शन-चरित
२४३ धातुओं से रहित हैं, स्व-पर हितकारी हैं, एवं चतुर्मुखी हैं। जय हो आपकी, जो प्रकृष्ट गुणसमूहों से विभूषित हैं, व असुरों, सुरों व मनुष्यों से प्रशंसित हैं। जय हो, हे अमेय केवलज्ञान के धारी; जय हो, हे मान के क्षयकारी; जय हो, हे निष्काम मदनविनाशी। जय हो, हे कुनयरूपी हस्तियों के सिंह । जय हो, हे त्रैलोक्य के लोगों पर कृपा करनेवाले। जय हो, हे लोभ के विनाशक सुपार्श्व । जय हो, हे निष्कर्म व यम के दूतों के त्रासक। जय हो, हे मोक्षलक्ष्मी से संयुक्त, मलरहित, संसार में स्तुत्य । जय हो, हे संसार के आश्रयदाता व समवसरण से संयुक्त। हे सुमुनिराज, रोगद्वेष रहित, सुगन्ध प्रसारक, सुरों के हितकारी व लेश्याओं से हीन । जय हो, हे निष्पाप भगवन् , नखों की वृद्धि से रहित, हे पूज्यों के पूज्य वासुपूज्य भगवन् । यदि कोई समस्त आकाशतल के पार जा सके, तो ही हमारे जैसा आपरंपरानुयायी, आपके गुणों का वर्णन कर सकता है।
३. विमलवाहन मुनि का वर्णन हे भगवन् , आपके नाम ग्रहण मात्र से खलजन क्षुब्ध ( भयभीत ) हो जाता है, हस्ति अपना दर्प छोड़ देता है, सर्प भी निर्विष हो जाता है, व विष भी अमृतरूप से प्रवृत्त होने लगता है। अग्निशीतल हो जाता है व केशरी आक्रमण करता हुआ भी रुक जाता है। वज्र के समान कठोर दृढ़ व उद्भट पैरों की बेड़ियां टूट जाती हैं, तथा अन्य घोर उपसर्ग भी मिट जाते हैं। इस प्रकार जब सुदर्शन चित्त में हर्षित होकर, मोक्ष के हेतुभूत जिनेन्द्र देव की स्तुति कर रहा था, तभी उसने वहां सुरेन्द्र द्वारा बंदनीय एक मुनिराज को बैठे देखा। वे मुनिराज तप रूपी अग्नि से तपाये हुए, मोह से त्यक्त, व सिद्धिरूपी कान्ता में अनुरक्त, मदों से रहित, नेत्रों को इष्ट एवं शरीर के मैल से लिप्त थे ॥१॥ उनका द्वेष नष्ट हो गया था, शुक्ल लेश्या प्रकट हो गई थी और वे संयमों के समूह रूप धन के धारी थे (अर्थात् बड़े तपोधन थे)। वे त्रैलोक्य-बन्धु थे, ज्ञान-सिन्धु व भव्यरूपी कमलों के मित्र ( सूर्य समान हितैषी ) थे। वे अलंध्य शक्ति के धारी थे, ब्रह्मयोगी थे, प्रयत्नपूर्वक जीवों की रक्षा करनेवाले थे, एवं जिनेन्द्र द्वारा कहे गए सात तत्त्वों का अवधिज्ञानपूर्वक भाषण करनेवाले थे ॥२॥ वे गिरीन्द्र के समान धीर, दोषों से भीरु, तथा पापरूपी पंक से उद्धार करनेवाले थे। वे दुःखरूपी फूलों को धारण करनेवाली त्रिशल्य रूपी बेल को तोड़ने में एक अद्वितीय हस्ती थे। वे प्रसन्नमूर्ति, सूर्य के समान देदीप्यमान, शीलरूपी जल के सागर, प्रमादों के विनाशक, मेघ के समान गंभीर-ध्वनि, संयमी व दयापरायण थे ॥३॥ वे महाकषाय व नोकषाय रूप भीषण शत्रुओं के विनाशक, अहिंसा मार्ग के अवलंबी, ज्ञानी, नग्न, व कर्मबन्ध को छोड़नेवाले थे; एवं कुतीर्थ ( अधर्म ) में पैर नहीं रखते थे, परिग्रहों से मुक्त थे तथा मनुष्यों और देवों को सन्तोष देनेवाले थे। ( यह लघु-गुरु क्रम से तीन वार सोलह अर्थात् अड़तालीस अक्षरों से युक्त पंचचामर छंद है)॥४॥ वे मुनि