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सुदर्शन-चरित
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उसे अनेकों अभेद (अक्षय ) उपहार प्राप्त मनोवांछित महान् सुखों का उपभोग कर मरने के पश्चात् और वहां विशाल विमान में दुःखरहित, पूज्य व मनोज्ञ किन्तु जो कोई चंचलमन होता है, वह दुःखरूपी जल में पराई लक्ष्मी व पराई सुन्दर स्त्रियों को देखकर तिल -
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श्रेष्ठ धन-भंडार अर्पित करते हैं ।
होते है वह मनुष्य उत्तम देव होता है, सुख प्राप्त करता है । डूब जाता है; वह
तिल खीझता है ।
१०. नरजन्म और धर्म की दुर्लभता
पर्वतों में श्रेष्ठ मेरु पर्वत है। कुंजरों में ऐरावत, नागों में शेषनाग, प्रासादों में देवगृह, सागरों में क्षीरोदधि, देवों में इन्द्र और जन्मों में नरजन्म श्रेष्ठ है । ऐसे नरजन्म को पाकर जो मूर्ख धर्म नहीं करता, वह शाश्वत सुख रूपी लक्ष्मी (मोक्ष) को आते हुए कुहनी देता है ( धक्का देकर निकालता है ) । इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर भी जीव सुखदायी धर्म का चिन्तन नहीं करता । क्षण-क्षण हर्ष मानता हुआ चलता है, व अपनी गलती हुई आयु को कुछ नहीं समझता । 'तुम चिरजीवी हो' सुनकर बड़ा हर्षित होता है । 'मर जावो' सुनकर रोष करता है। जानता नहीं कि काल मुझ पर उसी प्रकार अकस्मात् आ पड़ेगा, जिस प्रकार मत्स्य के ऊपर जाल । चमचमाते हुए मयूर के पंखों को, गजेन्द्र के दांत को, मृग के चर्म को, गैंडे की अस्थि को, कृमिरुह ( रेशम ) से बनी लोइयां व कंबल, इन सब को लोगों ने पवित्र मानकर प्रशंसा की है । मृतक मनुष्य किसी को इष्ट नहीं होता । उसके निजी बांधव भी उसे अनिष्ट समझ बाहर निकाल देते हैं । उसे छूते भी नहीं हैं, जैसे मानों वह काला सांप हो । उस क्षण प्रिय पत्नी व पुत्र, अपनी मात्र चिन्ता करते हैं । अतएव शरीर की स्थिति को विनश्वर जानकर झटपट, आत्महित में प्रयत्न करना चाहिये । रे मनुष्यो, धर्मरूपी प्रदीप को लो, जिससे लौटकर पुनः जन्मरूपी कूप में न गिरो । इस प्रकार मुनीन्द्र की वाणी सुनकर सुदर्शन ने अपने हाथों को सिर पर चढ़ाया और तत्काल महागुणों की खान धर्म को स्वीकार किया । हे श्रेणिक राजन्, ऐसा जानो । इस प्रकार गौतम गणधर ने उस नयों से प्रसादयुक्त शासन का व्याख्यान किया, जो निश्चय ही सुन्दर कला ( सम्यक्ज्ञान ) से युक्त है, समस्त भूमंडल को प्रिय तथा अज्ञान का नाश करनेवाला है, जिस प्रकार कि चन्द्र सुन्दर कलाओं का धारी, कुमुदिनी को प्रिय तथा अन्धकार का विनाशक होता है ।
इति मणिकनन्दि त्रैविद्य के शिष्य नयनन्दि द्वारा रचित, पंचणमोकार के फल को प्रकाशित करने वाले सुदर्शनचरित में, किरात, फिर श्वान, फिर सुभगगोप और फिर सुदर्शन, एवं कुरंगी, फिर महिषी, फिर वत्सिनी नामकी धोवीकी पुत्री, और फिर उत्पन्न हुई मनोरमा, इसप्रकार कथित चार जन्मान्तर, इनका वर्णन करनेवाली दसवीं संधि समाप्त ॥
संधि ॥१०॥