Book Title: Sudansan Chariu
Author(s): Nayanandi Muni, Hiralal Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa

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Page 297
________________ संधि ११ १. राजा घाईवाहन का वैराग्य वणिग्वर सुदर्शन ने उन मुनिराज के पास से अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुन कर, संसार से विरक्त हो, तपश्चरण धारण कर लिया, जिस प्रकार कि प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव ने किया था। उनके तपश्चरण का समाचार सुन कर अपने मन में संसार के भय से त्रस्त हो घाईवाहन राजा एकटक दृष्टि लगा कर पुनः पुनः चिन्तन करने लगा। "नारी का चरित्र बड़ा विचित्र है, जिसे देव भी नहीं जान, सकते। मैं अज्ञानी उसके प्रमाण को कैसे जान सकता हूं? मेरी पत्नी झटपट दंभ प्रकाशित करके मर गई। इस निमित्त को लेकर वह सुदर्शन विरक्त हो गया, तथा उसने मनोज्ञ राज्य को रज्जु के समान छोड़कर, सुपूज्य व सुशिक्ष्य (संयमात्मक) दिगंबरी दीक्षा ग्रहण की। और मैं इन्द्रिय-लंपट होता हुआ कुल भी नहीं समझ रहा हूं। मैं महान् और अनन्त पाप करता हुआ शंकित नहीं होता। ज्ञात नहीं, मैं मर कर भविष्य में कहां उत्पन्न होऊगा।" इस प्रकार अपने चित्त में विचार करके उस राजा ने अपने समस्त देश का राज्य अपने पुत्र को दे दिया और मुनीन्द्र को नमस्कार करके स्वयं निर्दोष दिगंबर मुनि हो गया। उसकी समस्त प्रिय पत्नियां भी उद्विग्न हो उठी और फिर वे सभी, हे मुकुटधारी नरेश ( श्रेणिक ), गर्व छोड़ दीक्षित हो गई। यह सब देखकर दूसरे कितने ही लोगों ने व्रत धारण किया और कितनों ने महाशल्य के सदृश मिथ्यात्व का परित्याग किया। २. गोचरी के समय नगर में सुदर्शन मुनि की चर्चा उन नरपति प्रमुख समस्त मुनियों ने चतुर्थ व्रत ( चतुर्थभक्त रूप उपवास ) धारण किया, और फिर अन्य दिन चम्पानगरी में तपलक्ष्मी से विभूषित (मुनि धर्मानुसार ) गोचरी प्रगट की। जहां पर उन्होंने राज्यश्री का उपभोग किया था, वहीं पर अब भिक्षाचरण किया। उनके न लोभ था, न लज्जा, न भय और न अभिमान । उनको यदि प्रेम था तो तपश्चर्या से। प्रत्येक साधु उच्च व नीच गृह का विचार न कर, घर के प्रांगण में पहुंचता व क्रमशः एक मार्ग से दूसरे मार्ग में भ्रमण करता, जिस प्रकार कि चन्द्र विशाल नभांगन में ऊच-नीच ग्रहों का विचार न कर क्रमशः प्रत्येक नक्षत्र में भ्रमण करता है। सुदर्शन मुनि का सौन्दर्य देखने के लिए, यौवनवती नारियां एक दूसरे के अंग से अंग का घर्षण करती हुई, व मेखला को स्खलित करती हुई दौड़ पड़ी। कोई बोली-“हे सखि, पहले भी इस ( सुदर्शन ने ) नगर को क्षोभित किया था व कपिलभट्ट की प्रिया विपरीत भाव में प्रवृत्त हुई थी, किन्तु इसने–'मैं तो नपुंसक हूं' ऐसा प्रत्युत्तर दे कर उसको भुलावे में डाल दिया।" कोई बोली-“इसने नरेन्द्र की वल्लभा अभया की भी इच्छा

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