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२४० नयनन्दि विरचित
[६. २१. कर, जब तक वह समर्थ न हो जाय। और तू भी सुन्दर भोगों का उपभोग कर, एवं अपने इष्ट, मित्र व बंधुओं को सुखी बना। तत्पश्चात् तपस्या करना ।" तब उस वणिग्वर ने कहा-हे राजन् , सर्वदा ही यम से कोई नहीं छूटता, चाहे वह बाल हो या युवा या वृद्ध । विशेषतः इस अवसर्पिणी काल में जीवन पानी के बुदबुदे के समान क्षणभंगुर होता है।
२१. सुदर्शन द्वारा जीवन की क्षणभंगुरता का निरूपण
जो कोई यौवन में उत्तम तप धारण करते हैं, वे सहज ही भवसागर से तर जाते हैं। यौवन पहाड़ी नदी के वेग के तुल्य है जो शीघ्र समाप्त हो जाता है। वृद्धत्व से सारा शरीर ढीला हो जाता है। जमरूपी अग्नि की अपूर्व ज्वालाओं से संतप्त होकर समस्त गात्र सिकुड़ जाता है। पीठ का मध्य भाग धनुष के समान टेढ़ा हो जाता है। नीची-ऊची भूमि, गोबर आदि अपवित्र वस्तु, जल व मूत्र, व पैर के नीचे रस्सी या साँप, इनका दृष्टि के द्वारा कोई अन्तर ही दिखाई नहीं पड़ता। वृद्ध पुरुष ( कमर झुका कर ) मानों महीतल पर अपने गिरे हुए यौवन को ढूढ़ता है, और कुकविकृत काव्य के समान पद पद पर स्खलित होता है। वह पवन से आहत वृक्ष के समान थर्राता है, और उसके कान दुष्पुत्र के समान कोई बात सुनते ही नहीं हैं। इसलिए जब तक बालबच्चे परस्पर लड़ते-भिड़ते व कहते-सुनते नहीं हैं, तभी तक मैं तपश्चरण करके मोतरूपी गृह में जा चढू'गा, जिससे पुनः संसाररूपी कूप में न पडू। प्रेम वही है जो द्वेष प्रकट न करे। वही भोजन है जो मुनियों के आहार से शेष रहे। वही प्रजा है जो पाप न कराये,
और वही धर्म है जिसमें कोई दंभभाव न हो। वही सत्कवि है, जो जिनवर का स्तवन करे। वही शूर है जो इन्द्रियों को जीते। दिव्य आभरण और विलेपन तभी तक सुन्दर दिखाई देते हैं, जबतक वे मनुष्य के शरीर में लगकर अत्यन्त दुर्गन्धी और विट्टाल ( दूषित ) नहीं हो जाते ।
२२. संसार की क्षणभंगुरता से पूर्व महापुरुषों में विरक्ति के उदाहरण
पूर्वकाल में ऋषभदेव ने नीलांजना के मरण का हेतु पाकर तपश्चरण ग्रहण किया। उनके अन्य पुत्र भी भरत चक्रवर्ती की सेवा करना पसन्द न करके दीक्षित हो गये। सगर राजा अपने पुत्रों के मरण की बात सुन कर, राज्यश्री को छोड़ सहसा श्रमण हो गया । देवयुगल द्वारा वर्णन सुनकर सनत्कुमार विरक्त हो गया, और तपस्या करने लगा। राघव(राम) ने भी छह मास तक लक्ष्मण (के मृतक शरीर ) को लिए फिरने के पश्चात् प्रव्रज्या का पालन किया। पशुओं का वध करके उनका विवाह होगा, ऐसा सुनकर ही कुमार नेमिनाथ ने मुनिव्रत धारण कर लिया। और भी दूसरे जिनेन्द्र भ्रमर के समान काले मेघों को विलीन, व उल्कापात हुआ देख दुद्धर तप में प्रवृत्त हो गये। मैं भी इसी प्रकार निर्ग्रन्थ होता है। जिससे महापुरुष