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२३२ नयनन्दि विरचित
[६.३लगी कि यदि तुम्हें कोई बड़ी अप्सरा हर कर ले गई (युद्ध में तुम्हारी मृत्यु हो गई ), तो मैं अपनी देह को तिल तिल टुकड़े करके स्वयं घात कर लूंगी, और इस प्रकार निश्चय से तुम्हें स्त्री-वध का दोष लगाऊगी। कोई कहती-'अपने प्रभु का कार्य सम्पन्न कीजिये, हाथियों और घोड़ों के समूह का घात कीजिये, समस्त प्रबल शत्र-बल की बलि चढ़ाइये और इस प्रकार मेरे घर में विजयलक्ष्मी को ले आइये ।' इस प्रकार राजा अपने समस्त सैन्य को सजा कर अपने मंडलीक राजाओं के साथ चलता हुआ इस प्रकार शोभायमान हुआ, जैसे मानों युग के अन्त में पृथ्वी को आच्छादित करता हुआ समुद्र उछल रहा हो।
३. राजा के सैन्य का भीषण-संचार राजा का सैन्य चल पड़ा और पृथ्वीतल को रौंदने लगा। वह आकाश को भरते हुए सोहने व अत्यन्त डर उत्पन्न करने लगा। वह नागों के समूह का दलन करता, भीड़भाड़ के साथ चलता, विष के बाण छोड़ता और लोगों के धैर्य का अपहरण करता। जल और स्थल को चलायमान, शत्रुओं के सैन्य में खलभलाहट तथा भय-रस को उत्पन्न करता हुआ वह सैन्य दशों दिशाओं में फैल गया। घोड़ों की कतार मिल कर चली। ध्वजापट लहलहाने लगा और आकाश को छूता हुआ, सूर्य का स्पर्श करने लगा। भेरियों की ध्वनि होने लगी, करभ श्वासें लेने लगा, रथ ढलकने लगा और भट-जन चारों ओर घूमने लगे। धूलिकापुंज घूमने और बहुलता से चलने लगा। वह नभस्तल में चढ़ता और महीतल पर आ पड़ता। कायर धड़का और गजवर गरजा। बह मदजल बहाने व पृथ्वी को कंपायमान करने लगा। उसने मद की सुगन्ध फैलाई, जिससे भ्रमर-समूह गुंजार करने लगा। ( यह कुसुम-विलासिका नाम द्विपदी कही गई)। इस प्रकार अपने चतुरंग सैन्य से सुसज्जित नरपति, जैसे जैसे निकट पहुंचा, तैसे ही वहां रजनीचर अपने माया निर्मित सैन्य सहित उसके सम्मुख आ डटा।
४. राजा और निशाचर की सेनाओं का संघर्ष तब उस राजा और निशाचर की सेनाएं युद्ध के आवेग से प्लावित होकर गरजने और परस्पर भिड़ने लगीं। वे सेनाए मिथुनों ( स्त्री-पुरुषों के जोड़ों) के समान रोमांचित-गात्र थीं व मिथुनों जैसी नेत्रों को चंचल कर रही थीं। वे मिथुनों जैसी रोष से उद्दीपित थीं, और मिथुनों के समान ही उनके मुख से उच्छवास दौड़ रहे थे। मिथुनों जैसे उनका परस्पर संबंध हो रहा था, व मिथुनों जैसे ही वे नानाप्रकार के मुद्रा-बंधों में मदान्ध हो रहे थे। मिथुनों के समान वे अपने आहरण ( शस्त्र व आभरण ) बखेर रहे थे, और मिथुनों के समान पैर उठा रहे थे। मिथुनों जैसे खूब स्वर छोड़ रहे थे, और मिथुनों जैसे ही पुनः पुनः कुछ हंस रहे थे। मिथुनों जैसे उनके भालों पर पसीना आ रहा था, और मिथुनों के समान वे करवाल ( कृपाण व हाथों से केश) खैच रहे थे। मिथुनों जैसे वे