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नयनन्दि विरचित
[ ८.४२. विरहवेदना ; फिर वह विवाह के समय का पाणिग्रहण और तारामेलन । मुझे स्मरण आता है वह प्रतिदिन का रतिगृह में गाढ़ आलिंगन तथा हाव, भाव, विलास और विभ्रम सहित बोलचाल । स्मरण आता है वह उपवन के बीच सरोवर में की गई जलक्रीड़ा, अनजाने मनोहर अव्यक्त वचन व अधरपीड़न । स्मरण आता है वह नये कोमल पत्रों से युक्त नील कमल द्वारा ताड़न, तथा मुक्ताफलों की छटावलि का बांधना और तोड़ना । स्मरण करती हूं वह सुगन्धि द्रव्यों का विलेपन, अंगों का भूषण, बार-बार का मनाना तथा प्रेम का रूसना । स्मरण करती हूं वह अपना बहुमान से पूरित होकर जल्दी जल्दी चल पड़ना, तथा आपके द्वारा प्रेमवचनों से संबोधित करना और करपल्लव पकड़ना । स्मरण करती हूं सुगन्धि केशरपिंड से अपना पिंगलवर्ण किया जाना तथा भौंरों से युक्त कल्पवृक्ष की मंजरी के कर्णपूर बना कर पहनाये जाना । स्मरण करती हूं अपने सुन्दर कपोलों पर पत्रावलि का लिखा जाना, धीरे-धीरे स्तनों का पीड़न व उत्तम केशों का ग्रहण । इतने पर भी मेरा वज्रमय हृदय फूट नहीं जाता । ( यह सुप्रसिद्ध रासाकुलक छंद कहा गया ) । हाय हाय-हाय रे विधि, दुष्ट, खल, रे तोड़ी (त्रुटित भन ), तेरा नाश क्यों न हो ? तूने मुझे एक निधि दिखलाकर फिर मेरी आँखों को क्यों उपाड़ डाला ?
४२. इधर मनोरमा और उधर सुदर्शन का चिंतन
यदि मेघ आकाश में न चढ़ें, यदि सुखे वृक्ष फल देने लगें, यदि मृगों के मारे सिंह मरने लगें, यदि मदन के बाण जिनेन्द्र के मन को हरण कर लें, यदि देव नरक में और नारकी स्वर्ग में, तथा मिथ्यामति त्रिभुवन के अग्रभाग ( मोक्ष ) में जाने लगे; यदि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से समृद्ध सिद्ध भी संसार में उत्पन्न होने लगें, तो ही तू परदारगमन कर सकता है; और हे चरमशरीरी, तू इनका मारा मर सकता है । जैसे जैसे मनोरमा यह कह रही थी, तैसे तैसे सुदर्शन चिन्तन कर रहा था - किसका पुत्र, व किसका घर और कलत्र ? परमार्थ से न कोई शत्रु है और न मित्र । केवल मैंने भी संसार में भ्रमण करते हुए अन्यभव में इन पर प्रहार किया होगा, जिसके कारण ये अपने हाथों में तीक्ष्ण शस्त्र ले, निमित्त पाकर, मुझपर प्रहार करने में लग गये हैं। तीन लोक में कहीं भी अर्जित कर्म का फल दिये विना नाश नहीं हो सकता । ( स्वभाव से तो ) मैं रत्नत्रय से संयुक्त, ऊर्ध्वगति, नानाप्रकार के बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थों ( परिग्रहों ) से जिनेन्द्र के समान परित्यक्त शुद्ध आत्मा हूँ ।
४३. व्यन्तर देव द्वारा सुदर्शन की रक्षा
जब सुदर्शन इस प्रकार पुनः पुनः अपने मन में चिन्तन कर रहा था, तभी दर्पोट योद्धा उसपर टूट पड़े। वे कहने लगे- 'ले, अपने इष्टदेव का स्मरण कर ले ।' यह कहकर वे उसके गले पर तलवारों के प्रहार करने लगे। उसी