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१७२ नयनन्दि विरचित
[३.८. चूमने लगतीं। बालक इसके हाथ से उसके हाथ में जाने लगा। जब बालक उसके मुखकमल पर हाथ घालता, तब कोई उसे लेकर झट छोड़ देती। सात मास व्यतीत हो जाने पर उसका अन्न-प्राशन कराया गया, तथा दो वर्ष व्यतीत हो जाने पर मुंडन कराया गया। अब वह बालक घर के आंगन में खेलने लगा, अपरिस्फुट (तोतले ) बचन बोलने लगा, धीरे-धीरे पृथ्वी पर पैर रखने लगा, पैजनों की झन-झन ध्वनि करने लगा। घग्घर घवघव ध्वनियां करता हुआ शोभायमान होने लगा। मम्-मम् ध्वनियों से अन्य बालकों को मोहित करने लगा। सोने की करधनी को खींच-तानकर तोड़ने, एवं उसकी घंटियों की ध्वनि को सुनकर हँसने लगा। वह चलता, मुड़ता व लड़खड़ाता हुआ ऐसा सुहावना प्रतीत होता था, जैसे जिनभगवान के जन्माभिषेक के अवसर पर शतमुख ( इन्द्र )। वह इस प्रकार उठता, गिरता, रटता व नाचता था, जैसे वर्षा ऋतु आने पर मयूर-वृन्द । इस प्रकार लीला और क्रीड़ा करते हुए जब उस पुत्र के आठ वर्षं व्यतीत हुए, तब वह सेठ अपनी मनोहर गृहिणी से हर्षपूर्वक बोला।
८. बालक का विद्यारंभ हे प्रिये, मैं तुझे विस्तार से क्या कहूँ ? मुझे अब यह मंत्र ( विचार ) सूझता है। पढ़ाने के निमित्त से ग्रन्थ, शास्त्र, एवं पेरिधान वस्त्र भेंट करके इस पुत्र को में मुनिवर को तबतक के लिए सौंप दूँ जबतक वह शब्द और अर्थ के ज्ञान (लिखने पढ़ने ) में विचक्षण न हो जाय। शिशुकाल में जो गुरु द्वारा शिक्षात्मक उपदेश दिये जाते हैं, वे उसी प्रकार स्थिर हो जाते हैं जैसे कच्चे घड़े में कण । उचित सामग्री से रचित व दोषवर्जित कहो कौन-सा कार्य पुण्य के प्रभाव से सिद्ध नहीं होता ? मनस्विनी महिलाओं से घिरा हुआ वह बालक ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे हंसिनियों के बीच राजहंस। इस प्रकार माता-पिता उस बालक को लेकर चैत्यालय में गये और वहाँ मुनिवर की ऐसी पूजा की, जैसी इन्द्र द्वारा जिनेन्द्र की की जाती है। मनोज्ञ छत्र और चंदोवा भेंट किये एवं जिनागम की अष्ट प्रकार से पूजा की। फिर मुनिराज ने 'सिद्धं' आदि क्रम से लिख-लिखकर बालक से उच्चारण कराया। मुनिराज के पास लीलापूर्वक पढ़ता हुआ बालक ऐसा सुन्दर प्रतीत हुआ, जैसे एक घड़े से दूसरा घड़ा भरा जा रहा हो। प्रतिदिन मुनिप्रवर प्रसन्न मन से उस सेठ के पुत्र को उत्तम शास्त्र पढ़कर सुनाने लगे, जिस प्रकार ऋषभनाथ ने भरत को पढ़ाया था।
९. नाना विद्याएँ और कलाएँ सुन्दर सन्धि, धातु, लिंग, अनेक लक्षण ( व्याकरण ), काव्य, तर्क, छंद, देशी नाम-राशि, दृष्टिज्ञान, लुप्त-मुष्टि ज्ञान, नाग-क्रीड़ा, दावपेंच का चातुर्य, गंध-युक्ति ( अर्थात् नाना द्रव्यों को मिलाकर भिन्न-भिन्न सुगंधी वस्तुओं का निर्माण करना)