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सुदर्शन-चरित पाप को प्रकट करनेवाले कलिकाल में मधुविंदु दृष्टान्त जन-प्रसिद्ध हुआ है। पांच उदुंबर एवं मद्य, मांस और मधु, इनका यदि त्याग किया जाय, तो ये ही श्री अरहन्त के आगम में अष्ट मूलगुण कहे जाते हैं।
५. जीवों के भेद व हिंसा से पाप अब पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत, जैसे जनमनानन्ददायी होते हैं, उन्हें, हे वणीन्द्र, सुनो। संक्षेप से जिनागम में जीवराशि सिद्ध और भवाश्रित ( संसारी ) के भेद से दो प्रकार कही गई है। सिद्ध अष्टगुणयुक्त और अनुपम एक प्रकार ही होते हैं। किन्तु भववासी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के जानना चाहिये। त्रस जीव क्रमशः द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के भेद से चार प्रकार के हैं। और ये भी जल, थल और नभस्तल में उत्पन्न होने के कारण नाना प्रकार के हैं। त्रस जीव कर्म-प्रकृतियों के अनुसार नानाधर्मी होते हैं, जैसे गर्भज तथा सम्मृच्छिम, संज्ञी, व असंज्ञी, तथा पर्याप्त और अपर्याप्त । स्थावर जीव अनन्त हैं ; तथा वे पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय व वनस्पतिकाय के भेद से पाँच प्रकार के कहे गये हैं। इनकी हिंसा करना तो दूर, हिंसा के चिंतन मात्र से पापी शालिसिक्थ (मत्स्य ) मरकर घोर रौरव नरक में जा पड़ा। ऐसा भले प्रकार समझ कर जीवों का वध नहीं करना चाहिये, तथा दूसरे जीव को निश्छल रूप से अपने ही समान देखना चाहिये। इस पर भी उस मनुष्य को क्या कहा जाय, जो हिंसा करता है ? ( यह छंद हेला नाम द्विपदिका है)। यदि कहीं स्थावर जीव की हिंसा करना अनिवार्य ही हो, तो भी दूसरे अर्थात् त्रस-जीवों की हिंसा तो मन्त्र, औषधि तथा पित व देवकार्य के लिए भी नहीं करना चाहिये।
६. अमृषा आदि अणुव्रत व गुणवत द्वितीय अणुव्रत के अनुसार, हे सुभग, ऐसी वाणी बोलना चाहिये जो निश्चय से अपने लिए तथा दूसरों के लिए हितकारी हो। मिथ्या भाषण से वसु राजा होकर भी नरक को प्राप्त हुआ। उसी प्रकार तृतीय अणुव्रत में, हे वणिग्वर, सुन, दूसरे का तृण समान भी धन हरण नहीं करना चाहिये। वणिग्वर के रत्नों का हरण करके श्रीभूति दुःख से संतप्त हुआ, मर कर नरक में गया। चौथे अणुव्रत में परस्त्री का परित्याग तथा अतिचंचल मन के प्रसार का रोक करना चाहिये। रावणादिक सभी यश के प्रसार को समाप्त करनेवाले पर-स्त्री की अभिलाष के कारण नरक में गए। पंचम अणुव्रत में परिग्रह का परिमाण करना चाहिये । 'स्फुटहस्त' लोभ के कारण चिरकाल के लिए नरक में गया। प्रथम गुणव्रत में, हे सुभग, यह स्पष्ट रूप से बतलाया गया है कि दिशाओं और विदिशाओं में गमन का सदा त्याग करना चाहिये। दूसरे गुणव्रत में रति त्याग तथा भोगोपभोग के परिमाण में संकोच करना चाहिये। तीसरे गुणव्रत में जो योग्य है, उसे मैं प्रकाशित