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२०८ नयनन्दि विरचित
[७. १६की सुगंध का अनुसरण करता हुआ हर्ष से दशों दिशाओं में अपने हस्तकमल फेंकने लगा। और कहीं वह प्रिया भी अपने सिर के सघन केशभार को दृढ़ करके अपने हाथों में जल ले उसके उरस्थल को भरने लगी। कहीं कोई आवेग से उछलकर निर्मिमेष अपनी प्रिया के अधर का पान करने लगा, जैसे मधुकर कमलिनी का रस पीता है। कहीं कोई रमणी वहाँ अपने प्रियतम का स्पर्श पाकर रोमांचित हुई अपने मन की उत्कंठा का परिहरण करती। कहीं उसके शरीर के संघर्ष से जल में गिरे हुए मणिकटक ऐसे शोभायमान हुए, जैसे मानों चन्द्र और सूर्य आकाश में चमक उठे हों। (यह दिणमणि छन्द है)। जलक्रीड़ा करके लोग सरोवर से बाहर निकले। तब तरुणियों से युक्त अभया रानी अपने शरीर को आभूषित करने लगी।
१९. अभया रानी का साज-शृंगार अभया रानी के भाल प्रदेश में चमेली की कली पर आसक्त विचित्र भ्रमर लिखा गया। उसके कपोलपट पर आम्रमंजरी से युक्त कस्तूरी की बेल लिखी गई। उसके कानों में चमकीले कुंडल पहनाए गए, मानों राहु के भय से चन्द्र और सूर्य मंडल उस नखरूपी मणियों की किरणों से गगन को उद्योतित करनेवाली मृगनयनी की शरण में आकर प्रविष्ट हुए हों। उसके स्तनों के ऊपर हार लटकने लगा, मानों आकाश गंगा का प्रवाह कल्लोले ले रहा हो; अथवा मानों वह भावों का निधान कामदेव का पाश हो ; अथवा मानों वसन्त लक्ष्मी का हिंडोला हो। स्तब्ध स्तनों के आगे लोटता और नमता हुआ भी वह हार गुणवान होने पर भी मध्य आशय ( कटि प्रदेश) को प्राप्त नहीं कर पाता था। मेखला ने, जो हुताशन का सेवन किया. इसीसे उसके नितम्ब को पा लिया। पैजनों की जोड़ी झुनझुन शब्द करती हुई हंसकुलों को सन्तुष्ट करने लगी; मानों घोषणा कर रही हो कि मैंने कुंकुम से लिप्त, दुर्लभ और अत्यन्त भला चरणयुगल पा लिया। हे श्रेणिक राजन्, बहुत कहने से क्या, सब लोग सन्तुष्ट व नयनंदित होकर, देवों को मोहित करनेवाले नगर में लौट आये।
इति माणिक्यनन्दि विद्यके शिष्य नयनन्दि द्वारा रचित, पंचणमोकार फल को प्रकाशित करनेवाले सुदर्शनचरित में सुदर्शन का विलास, कपिला ब्राह्मणी का छल, वसन्त समयागम पर जिस प्रकार प्रतिज्ञा का संबंध प्राया, वन में जलक्रीडा व अभयादेवी का शरीर-शृङ्गार, इनका वर्णन करनेवाली सप्तम संधि समाप्त ।
॥ संधि ७॥