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नयनन्दि विरचित
[७. १५. से हंस की भी हंसी उड़ा रही थी ; इसी से तो वह अपने प्रियतम के मन में बस रही थी। किसी अपूर्व धानुष्किनी (धनुर्धारिणी) ने अपने तीक्ष्ण और उज्ज्वल नयनरूपी वाणों से बिंधे हुए (अपने पति) को छोड़कर अबिद्ध को बेध डाला, और इस प्रकार उसने सहसा ही कामदेव को सन्तुष्ट कर लिया। जहां प्रिया जाती, वहीं-वहीं प्रियतम का मन दौड़ता, मानों उसने उसपर कोई अपूर्व मोहन ( जादू ) कर दिया हो।
१५. प्रेमियों की वक्रोक्तियां कोई प्रियंगु लताओं से सघन तथा भ्रमण करते हुए भौंरों सहित फूलों की सुगंध से युक्त लतागृह में, परेवा का शब्द सुनकर, लीलापूर्वक अपनी कामिनी से क्रीडा करने लगा। नन्दन वन में नर और नारियां भ्रमण करने तथा परस्पर छलवचनों (वक्रोक्तियों) का आलाप करने लगे। कोई कहता-हे कान्ते, यह अशोक कैसा विकसित (प्रफुल्लित ) हो रहा है? वह कहती-'जो अशोक ( शोकरहित ) हैं, वह अवश्य ही विकसित (प्रसन्न ) होगा।" हे प्रिये, ये श्रीफल (नारियल) कितने मीठे हैं ? हे प्रिय, श्रीफल ( लक्ष्मी के फल ) मीठे होते ही हैं। हे प्रिये, तालाबों पर ( अथवा अपने रसों से ) यह बकों ( पक्षियों ) की पंक्ति उड़ रही है ; प्रियतम, कहीं रसों के साथ व्रत होते हैं ? हे प्रिये, मैं इस विषधर ( तालाब ) को जल्दी से पार कर सकता हूँ; यदि तुम विषधर ( सर्प) हो, तो मैं तुमसे डरती हूँ।' कोई कहता-'देखो, कौवा कांव-कांव कर रहा है; क्या प्रिय तुमने कं के कंठ-नाद सुन लिया हैं ? हे प्रिये, मुझे कतार ( वन ) प्रदेश भाते हैं; हे प्रिय, कता-रत ( प्रियाप्रेम ) किसे इष्ट नहीं होता ? हे प्रिये, तू वकालाप में बड़ी दक्ष है ; तो क्या प्रियतम, तुम से भी अधिक ? हे प्रिये, इस मनोज्ञ, सरस और सुकोमल शल्यकी को तो देखो ? हे प्रिय, ऐसे गुणों से और भी तो विवश होकर सालते हैं ( पीड़ा अनुभव करते हैं )।
१६. सरोवर की शोभा कहीं विदग्ध लोगों द्वारा इस प्रकार सुहावनी प प्रिय वक्रोक्तियां बोली जा रही थीं; और कहीं संगीतरस का प्रयोग तथा रसिक देवों का मनोरंजन किया जा रहा था। तभी राजा व अन्य लोगों ने सरोवर की ओर लक्ष्य किया, जो समस्तरूप से मनोहर था। वह अपने नील रत्नों की पालि ( पंक्ति) से अतिविपुल दिखाई दे रहा था। वहां कमलों की सुगंध से भ्रमरपुंज आ मिले थे। देवललनाओं की क्रीडा का कलकल शब्द हो रहा था। मछलियों के पुंज चल रहे थे, मुड़ रहे थे,
और उछल रहे थे। कलहंसों के मुखों द्वारा शतदल कमल तोड़े जा रहे थे; तथा डोलते हुए वराहों के झुण्डों द्वारा जड़ें खोदी जा रही थीं। हाथियों की क्रीड़ा से उनके पैरों द्वारा तले ( नीचे ) का मल ( कीचड़ ) चलायमान