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२०४ नयनन्दि विरचित
[७. ११. दंभ (छल ) किया। इन वचनों से कपिला ने निःश्वास छोड़ा और कुछ कुछ अपने मुँह को खोला। तब अभया देवी ने कहा--"तू मुझ से भी अपना हृदय क्यों छिपाती है ? मुख और नयनों के विकारों से, भाषणों से तथा इंगितों और शरीर की चेष्टाओं के प्रकाश से दूसरे का चित्त जान लिया जाता है। तब, हे सखि, छल करने से क्या लाभ ? जहां विशेष चतुर लोग रहते हैं, वहां किसी के श्वास लेने का भी पता चल जाता है।" तब कपिला कुछ हँसते हुए बोली"तुम्हारे आगे कहते मुझे लज्जा आती है। हे देवि, तू मुझे अभयदान दे, तो मैं अपनी सारी कहानी कह सुनाऊँ ?" तब अभया ने कहा- "ले, मैंने तुझे अभय दिया। देख लिये जाने पर भी अपना चित्त क्यों छिपाती है ?' यह वचन सुनकर कपिला ने उत्सुकता से अपनी गुप्त बात छिपाई नहीं, और अभया को उत्कंठा पूर्वक कही।
११. कपिला का मर्म-प्रकाशन व रानी का उपहास
इस मनोरमा के कान्त के गुणों को सुनकर मैं उस पर परोक्ष राग से अनुरक्त हो गई। तब मेरी सखी उसे आगे जाते हुए जानकर एक बहाने से उसे मेरे पास लिवा लाई। जब वह वणिग्वर रतिगृह में प्रविष्ट हुआ, तब मैंने उसे हाथ पकड़कर प्रेमपूर्वक कहा-“हे प्रभु, एक बार मुझसे रमण कीजिये व प्रज्वलित होती हुई मेरी मदनाग्नि को शान्त कीजिये ।" तब उसने झट मुझसे कहा-“मैं तो नपुंसक हूँ।" मैंने तुरन्त उसका हाथ छोड़ दिया और मुझे बड़ी विरक्ति हुई। इस प्रकार जब कपिला ने अपनी गुप्त बात कही, तब अभया हंसकर बोली-"उस देश की बात रहे, जहां तू भी छैलों के बीच ऐसी बातों में पड़ गई। उस अवलोकन की भावशुद्धि ही क्या जिसके द्वारा बोली से ही दूसरे की बुद्धि का पता न चल सके । मैं तेरी बुद्धि को पांव से कुचलती हूं। मैं अपनी बुद्धि को दूसरे के हृदय में कैसे ठूस दूं? हे सखि, चतुर स्त्रियां अपने प्रियतम को उसी प्रकार वश में कर लेती हैं, जिसप्रकार पैर पनही को पहन लेते हैं। तू उसके बचन से भी धोखा खा गई, ऐसा मैं समझती हूँ। किन्तु जब जलपुज वह गया, तो अब मेरे पालि बांधने से क्या लाभ ?
१२. रानी की कुत्सित प्रतिज्ञा हेसखि, वह सुदर्शन जिनधर्मानुरागी, दयापरायण, दुर्व्यसनों से मुक्त, सरस्वती-भूषित व प्रशंसाप्राप्त होते हुए पराई नारियों के प्रति सदा नपुंसक है"। अभया की यह बात सुनकर कपिला कुपित हुई और बोली-“हे देवि, इस संसार में अपनी जन्मजात प्रकृति क्या कोई छोड़ सकता है ? मैं एक हीन, दीन सद्गुणों और सद्बुद्धि से वर्जित ब्राह्मणी हूं। इसी से अपनी कान सुनी बात सुनते मुझे लज्जा (शंका ) नहीं आई। किन्तु तू त्याग और भोगों से युक्त, अन्तःपुर में प्रधान व ललित और सुन्दर राजरानी है। तू अद्वितीय तीक्ष्णबुद्धि