________________
८. १६]
सुदर्शन चरित तुमने मुझ पर यों ही गर्जना की, तथा एक अनाथ व दीन के समान मुझे लज्जित किया। और फिर दंभ करके मुझे मना रहे हो। सिर काटकर उस पर अक्षत फेंकने से क्या लाभ ? यद्यपि तुमने बहुत अयुक्त कार्य किया है, तथापि एकबार मैं तुम्हें सर्वथा क्षमा करती हूँ। अपने स्वामी के चरणकमलों के अनुरक्त, हे पुत्रो, तुम दीर्घायु हो। तुम्हारा सिर अमृत से सींचा जाय और तुम्हें दिनोंदिन राजा का प्रसाद प्राप्त हो।" इसी क्रम से पंडिता ने सातों मणिसार द्वार अपने वश में कर लिए। इसी बीच यहाँ पाप-मल का नाश करनेवाला सुदर्शन सेठ अष्टमी के दिन मुनि को नमस्कार करके, उपवास ले, एवं समस्त प्रारम्भ का परित्याग करके, शुद्धमन होकर श्मशान की ओर चला। किन्तु उठते समय उसका वस्त्र फँस गया, मानों पुनः पुनः उसका निवारण कर रहा हो कि तू उपसर्ग के योग्य नहीं है।
१५. सुदर्शन को अपशकुन हुए किसी के मुख से वचन निकल पड़ा—'कहाँ जा रहे हो। एक तरफ किसी ने छींक दिया। एक तमाल को भी जीतनेवाली ( अत्यन्त काली ) स्त्री जिसके सिर के बाल छूटे हुए थे, टकरा गई। पीछे से कुत्ता रुष्ट होकर उसके वस्त्र का अश्चल खींचने लगा। फिर उसके दाहिनी ओर गधा आ खड़ा हुआ। फिर उसने एक निकृष्ट कोढ़ी को आते देखा। आगे एक उद्धत काला सांप मार्ग काट कर निकल गया। सम्मुख चलस्वभावी दुर्गन्ध वायु आई। कुछ दूर पर एक कांटों के झाड़ पर रिष्ट ( कौवा) किटकिटाता हुआ बैठा दिखाई दिया। बाँई ओर एक शृगाली कर्कश स्वर से फेकार करती हुई बैठी थी। ऐसे तथा और भी अनेक अपशकुन उसे मार्ग में पुनः पुनः दिखाई दिये। तथापि व्रत में अत्यन्त आसक्त-मन होते हुए वणीन्द्र ने उन सबकी उपेक्षा की।
१६. श्मशान का दृश्य चलते-चलते सुदर्शन श्मशान में पहुँचा, जहाँ कुत्ते घुर्राते हुए भिड़ रहे थे। जहाँ नाना शरीरों का मांस पड़ा हुआ सड़ रहा था। जो घू घू करते हुए घुग्घुओं से अमङ्गल रूप था। जो शृगालियों द्वारा छोड़ी हुई फेक्कारों से भीषण था। जहाँ किलकिलाते हुए बैतालों का कोलाहल हो रहा था। जहाँ प्रज्वलित अग्नि की ज्वालाएँ उठ रही थीं। जहाँ शाकिनियों का संकेतयुक्त भाषण हो रहा था। जहाँ पिशित ( मांस ) के लाभ के लिए गीध चक्कर लगा रहे थे। जहाँ मृतकों के केशों के ढेर लग रहे थे। जहाँ योगियों की हुङ्कार ध्वनि सुनाई दे रही थी, व मंत्रशक्ति से पर-विद्या का स्तम्भन किया जा रहा था। जहाँ विविध रुण्डों की बहुत से मुण्डों की माला धारण किये हुये कापालिक, मस्तकों की परीक्षा करते हुए घूम रहा था। ऐसे उस श्मशान में पहुँच कर वणीश्वर अपने मन में जिनेश्वर