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सुदर्शन चरित
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है, ऐसी समस्त पुरजन प्रशंसा करते हैं । किन्तु तुझे बड़ी चतुर तो मैं जानूं, यदि तू उसके मन को चलायमान कर दे ।" इस पर अभयादेवी मदान्ध होकर उछली और गरज कर बोली - "तेरी बातों से मुझे बार-बार हँसी आती है । बुद्धिमान जो कुछ प्रारम्भ करते हैं, वह क्या सम्पन्न नहीं होता ? बहुत कहने से क्या ? मैं इस कौतुक को करके ही रहूँगी। यदि मैं कामदेव सुदर्शन से रमण न करूँ, तो, हे सखि, मैं अपने गले में फांसी लटका कर मर जाऊँगी । यदि मैं इस प्रतिज्ञा का पालन न करूँ, तो, हे कपिले, मैं लज्जित हूँ ।" ( यह शालभंजिका नामक सुप्रसिद्ध छन्द है ।) इस प्रकार प्रतिज्ञा करके अभया अपने मन में चमक उठी, व चलायमान मन से बाबली हुई वहां से आगे बढ़ी ।
१३. उद्यान की रंगरेलियां
विलास और हास्य से उत्पन्न भावों का अनुवर्तन करते हुए, रानी चलती चलती उद्यानवन में पहुँची । वह लोगों के मन में संक्षोभ उत्पन्न करती हुई ऐसी प्रतीत होती थी, जैसे मानों धनुष से छोड़ी हुई कामदेव की भल्ली (फाल ) ही हो । जैसी वह, तैसी और भी सारी नारियाँ क्रीडावन में पहुँचीं। किसी ने मनोहर चमकते हुए आभूषणों से विभूषित अपनी भामिनी से कहा- “तेरे प्रेम के विना मेरा शून्याकार चित्त कहीं भी नहीं रमता । यह समझकर देरी मत कर । इस उद्यानयात्रा को सफल बना ।" कोई अपनी प्रिया को अपने साथ-साथ नहीं ले गया, इससे वह रूठ गई और वह उस महामानिनी को मनाने लगा - " एक बार मेरे अपराध को मत ले ( क्षमा कर ) । इस जन्मभर मैं तेरा ही हूँ ।" कोई कामुक रमणी के पैरों लगता व रमग ( जघनस्थल ) देखने का प्रयत्न करता, तथा पुनः पुनः अपना चित्त समर्पित करता। ठीक ही है, कामासक्त पुरुष क्या-क्या विकल्प नहीं करता ? कोई कृशोदरी अपने कर रूपी सुन्दर पल्लवों, नयनरूपी कुसुमों एवं स्तन रूपी फलों को धारण करती हुई ऐसी शोभायमान हो रही थी, जैसे वह मोहिनी लता ही हो ।
१४. कानन और कामिनी विलास
जहां-जहां एक मत्तगजेन्द्रगामिनी लीलापूर्वक दृष्टि डालती थी, वहां-वहां उसकी आज्ञा जानने की इच्छा से मन्मथ स्थानबद्ध प्रगट हो जाता था । कोई वर्तुलाकार, स्थूल, पीवर और उत्तुंग स्तनों वाली कामिनी दूसरे माहुलिंगों की ओर देखने लगी । कोई अरुण और कोमल रक्तोत्पलों और अपने करतलों में भेद जानना चाहती थी । वहाँ भ्रमर कभी इस ओर, कभी उस ओर जा रहा था, और इस प्रकार कहीं षट्पद भी दुविधा में पड़ा प्रतीत होता था । किसी कामिनी की क्षीणकटि से रोमराजि मदनभुजंगिनी जैसी प्रगट हो रही थी । कोई मुग्धा कभी नील कमलों की माला की ओर देखती थी, और कभी अपनी मरकत मणियों की मेखला को । कोई अपनी गति