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७.१८] सुदर्शन-चरित
२०७ हो कर ऊपर आ रहा था। कमलों से झड़ी हुई रज से जल पिंगवर्ण हो रहा था। पवन से झकोरी हुई तरंगों द्वारा थलभाग पर आघात हो रहा था, मानों वह उसी बहाने नभस्तल को छू रहा हो। वह सरोवर कुवलयों ( नील कमलों) से शोभायमान, पुंडरीकों ( श्वेत कमलों ) के समूहों से आच्छादित, हाथियों, रथांगों ( चक्रवाक पक्षियों ) तथा सारंगों ( चातकों) से उद्भासित था, अतएव वह एक राजा के समान था, जो कुवलय (पृथ्वी-मंडल ) पर विराजमान प्रधानों के समूह से शोभायमान तथा हाथियों, रथों और घोड़ों से प्रभावशाली हो। (यह विलासिनी छन्द प्रकाशित किया।) उस सरोवर को देख कर लोग हर्ष से कहीं समाए नहीं, मानों देवों का समूह मानस सरोवर पर आ पहुंचा हो।
१७. रमणियों की जलक्रीड़ा उद्यानवन में रमण करके चित्त चुरानेवाली नारियाँ सरोवर पर आ पहुँची ; और वहां वे जैसी जल-क्रीडा करने लगी, तैसी वर्णन करने में कोई समर्थ नहीं। वहां सरोवर में प्रवेश करने पर, जल कामिनी के पैर पकड़ता। फिर उसके रमण प्रदेश में विभ्रम करता, जहां तहां लीन होकर दलन करता, तथा त्रिवली को ढककर वक्षस्थल पर चढ़ता, मुख को चूमकर बाल पकड़ता; और इस प्रकार वह जल कामी पुरुष का अनुसरण करने लगा। हाथ से आहत होने पर दूर उछलता, किन्तु आसक्ति से पुनः ऊपर आ पड़ता। काम की तृष्णा से पीड़ित हुआ मानों पुनः पुनः चारों दिशाओं में घूमता। उसे तरुणियों के शरीर का स्पर्श करते हुए देखकर देव सोचने लगे—'यह जल-पुंज धन्य है। किसी के जल में डूबने पर उसके आच्छादित उर ऐसे शोभायमान हुए मानों जल में हाथियों के कुंभ हों। किसी के रमण (जघनस्थल) पर उसके प्रेमी ने दृष्टि डाली, जो वहाँ से चलायमान ही नहीं हुई, जैसे मानों कोई ढोरी ( गाय आदि पशु ) कर्दम में फंस गई हो। किसी के स्तनप्रदेश में वक्र व तीखा नख लगा था, मानों मन्मथरूपी हाथी के कुंभस्थल पर अंकुश का घाव हुआ हो।
___ १८.: जलक्रीड़ा में आसक्त नारियों की शोभा
वहां सुन्दर ओठों रूप ऊर्ध्वपत्रवाला, दाँतों की कांतिरूप केशरयुक्त, सुगंधी जिह्वारूपी मकरंद से भास्वर, चंचल नेत्रों रूप भ्रमणशील भौरों सहित तथा सुन्दर मित्रों रूप मित्र (सूर्य) से विकसित कामिनी का मुखरूपी कमल शोभायमान हुआ। कहीं कोई तरुणी अत्यन्त तरलता से मछली के समान सुन्दर कमलों के मधु के लोभ से भ्रमर-पुंज द्वारा आश्रित जल में तैरने लगी। कहीं कोई अपने लात हाथ और पैर प्रगट करने लगी, और वहाँ भ्रमरगण उन्हें कमल समझकर एकत्र हो पड़ने लगे। कोई केशर के रस से लिप्त अपने स्तनकलश दर्शाने लगी, और इस प्रकार प्रेम से पराधीन प्रियतम के मन को हर्षित करने लगी। कहीं प्रिय अपनी प्रिया के मुख