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नयनन्दि विरचित
[ ४. १५कठोर हों, वह प्रत्यक्ष राक्षसी है। हे मित्र, उसे छोड़िये। बहुत कहने से क्या ? इस प्रकार वचन सुनकर और अपने उस मित्र के गुणों की स्तुति करके वह वणिकपुत्र सुदर्शन कामानल से संतप्त, शून्यमन और क्षीणतन अपने घर वापिस आया।
१५. मनोरमा की काम-दशा वहाँ जब वह सुकुमार बालिका अनुरक्त-चित्त होकर अपने सुन्दर भवन में पहुँची, तो वह हाथ मोड़ती, केश-कलाप छोड़ती, गले में चमकीला हार घालती
और निकालती। एक क्षण में खूब भौहें मरोड़ती, कोमल शैया का परित्याग करती तथा स्वयं अलीक व ललित किंचित् हँसती। वह ( उसी का ) ध्यान करती, गाती, व श्वासें लेती। फिर एक क्षण में गाढ़ व दृढ़ आलाप करती, अथवा अपने चमकीले दांतों से अधर को जोर से दबा लेती। वह कुछ-कुछ यहाँ-वहाँ देखती और सोचती, तथा इधर-उधर कुछ हँसती और बोलती। बड़े-बड़े स्तनों के भार से अवनत-देह वह सुन्दरी नये स्नेह से युक्त स्वयं को धैर्य देती, किन्तु क्षण भर में फिर वही सुहावना संबोधन (हे नाथ, हे स्वामी, आदि ) पढ़ती और 'मुझ तृषातुर का परित्राण कीजिये' ऐसी मन में रट लगाती थी। श्रेणिक सुनता है और गौतम कहते हैं कि नयनन्दि जगत्स्वामी बुध ( भव्य ) रूपी कमलों के रवि जिनेन्द्र को छोड़कर अन्य ऐसा कौन है, जिसे मदन ने क्लेश न पहुँचाया हो ?
___इति माणिक्यनन्दि त्रैविद्य के शिष्य नयनन्दि द्वारा विरचित पंचणमोकार के फल को प्रकाशित करनेवाले सुदर्शनचरित में मनोहर जाति, पुनः अंश तथा सत्त्व व समस्त देशी, प्रकृति, भाव, देह, इंगित, युवती-लक्षण तथा राजश्रेष्ठि-पुत्र का विरह, इनका वर्णन करनेवाली चौथी संधि समाप्त ।
संधि ॥४॥