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सुदर्शन-चरित
१८७ रक्त हुआ, वह वारुणि ( मदिरा ) में रक्त पुरुष के समान उग्र होकर भी कौन कौन नष्ट नहीं होता ? नभरूपी मरकत के पात्र में उत्तम वन्दना हेतु संध्याराग रूपी केशर, शशि रूपी चंदन, चन्द्रमृग रूपी अत्यन्त श्यामल कस्तूरी, विकसित ग्रह रूपी प्रफुल्ल कमल तथा तारारूपी तंदुल, इन मंगलकरणों ( साधन-सामग्री) को लेकर अनुराग युक्त निशा रूपी रमणी उस समय आ पहुंची। वह शोभासम्पन्न वधू-वर को देख कर संतोष से मानों कहीं भी समाती नहीं थी। ऐसे समय में सुदर्शन अपनी मनोवांछाओं को पूरी करनेवाली वधू से युक्त शोभायमान होता हुआ, व रतिगृह में प्रवेश करता हुआ ऐसा प्रतिभासित हुआ जैसे विन्ध्याचल के कुंज में करिणी के साथ हाथी। पलंग के ऊपर स्थित होकर वे दोनों ऐसे रति-आसक्त हुए, जैसे लक्ष्मी और नारायण, अथवा मानों गौरी और त्रिनेत्र महेश ) शोभायमान हों। अथवा मानों रति और मदन प्रत्यक्ष हुए हों। चंदन और तिलक से महकते हुए, विभ्रम-सहित नखों से लगे हुए सुन्दर व्रणदर्शी, भुजाओं और हाथों से युक्त तथा स्तनों के भार से नमित यौवन का, एवं चंदन और तिलक वृक्षों से महामहिमशाली, भ्रान्तिजनक, नभलग्न सुन्दर वृक्षदर्शी, लताओं व पल्लवों से युक्त तथा फलों के भार से झुके हुए वन का सेवन कोई धन्य पुरुष ही करता है।
९. वर-वधू की कामक्रीड़ा नया वर विविध विकार करता था और नई वधू लज्जित होती थी। कामांध पुरुष जो न करे वह शोभता नहीं ( जो करे सो थोड़ा है)। सुदर्शन उसके वस्त्र को खींचता, किन्तु मनोरमा नीविबंधन करती। सुदर्शन कामपूर्ण बातें करता, परन्तु मनोरमा हाथों से अपने कान झांपती। सुदर्शन विलासपूर्ण भाव से कटाक्ष फेंकता, किन्तु मनोरमा सम्मुख निरीक्षण ही न करती ( आँख से आँख न मिलाती)। सुदर्शन स्तनों पर हाथ घालता, किन्तु मनोरमा अपने हाथ से उसे झटक देती। सुदर्शन अपने मुख से उसका मुख चूंबता, मनोरमा एक क्षण भर उसमें भी विलम्ब डालती। सुदर्शन दाँतों से उसके होंठ चबाता, मनोरमा हुंकार करती और कांप उठती। सुदर्शन नखों से घाव करता; मनोरमा के अंग में पसीना दौड़ पड़ता। फिर वे दोनों सुन्दर रति का रमण करने लगे। (यह छंद वसंतचत्वर है ।। वे वधू-वर हुंकार करते, स्वर छोड़ते, ओंठ काटते, केश विखराते, तथा नाना प्रकार के करण-बन्ध ( भोगासन ) करते और फिर संभलते, जैसे कौरवों और पांडवों के सैन्य रणव्युह में हुंकारें भरते, बाण छोड़ते ( क्रोध से ) ओंठ चाबते, केश विखराते तथा नाना प्रकार का शस्त्र-बंध करते और फिर संभलते थे।
१०. सूर्योदय-वर्णन ___ रक्तचूड़ ( मुरगे) द्वारा संकेत पाकर प्रवासी चल पड़े। कौवों के शब्द उठे और शीघ्र ही भय से कांपते हुए कौशिक ( उल्लू ) छिप गये। तभी जगरूपी सरोवर से तारा रूपी प्रफुल्ल कुमदों से उद्भासित रात्रि रूपी कुमुदिनी को प्रत्यूष