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सुदर्शन-चरित
८.
नारी के संकीर्णभाव
जो जाति, अंश, सत्त्व और देशी, ये चार प्रकृतियां कही गई हैं, उनके मेल से ही स्त्री के भावों में प्रधान संकीर्ण भाव उत्पन्न होता है, जैसे चतुरंग सैन्य के बीच राजा । यह स्त्री भाव भी संक्षेप से तीन प्रकार का कहा गया है - शुद्ध, अशुद्ध व मिश्र गुण युक्त | वह विशुद्ध भाव भी तीन प्रकार का जानो-मंद, तीक्ष्ण और तीक्ष्णतर । कुछ-कुछ लज्जा-क्रम से सम्पन्न दृष्टि द्वारा उसका मन्द भाव जानना चाहिये । दृष्टि भी तीन प्रकार की कही गई है। मृदुल, ललित और कटाक्षवलित । जो दृष्टि हृदय के उत्तम गुणोत्कर्षयुक्त हर्ष से अपने प्रिय मनुष्य की ओर प्रेरित होती है, एवं मुकुलित होती हुई विस्तार को प्राप्त नहीं होती, उसे मृदुल दृष्टि कहा जाता है । मन में उत्पन्न हुए अनुराग से जो विकास को पाती, प्रियतम की ओर जाती और उसी प्रकार चंचल होती है, जैसे जल में मछली, वह दृष्टि ललित कहलाती है ।
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९. स्त्री की भाव दृष्टियां
जब कोई स्त्री गुरुजनों के बीच में लज्जा रूपी अंकुश से नियंत्रित करिणी के समान प्रेमभार के वश होकर अपने प्रिय का अनुसरण करती है, तथा सुन्दर कटाक्ष का विक्षेप करती हुई मुड़ती है, तब उसकी उस दृष्टि को विद्वान लोग कटाक्षवलित कहते हैं । जब प्रिय के दर्शन होने पर स्त्री का मलिन मुख निस्सन्देह रूप से उसी प्रकार विकसित हो जाय, जिस प्रकार सूर्य के उदय से कमल सरोवर में नलिन विकसित होता है, ओष्ठपुट फरक उठें व मन ऐसा थर्राने लगे जैसे तीव्र, चटुल पवन के बेग से देवालय की ध्वजा, तथा गण्डस्थल में पसीना दौड़ने लगे, जैसे हस्ती के गण्डस्थल में 'मद भरने लगता है, तब, हे मित्र, इसे तीक्ष्ण भाव से हुआ जानिये । जब नारियां मुनियों के समान भय, लोभ, मान व लज्जा को त्याग करती हैं, तथा कृष्णपक्ष में चन्द्रमा के समान प्रतिदिन क्षीण होती हैं, पुनः पुनः लम्बी उग श्वासें छोड़ती हैं, तथा कुलमार्ग छोड़ कर उन्मार्ग से चलती हैं और कंपायमान होती हैं, तब यह उनके तीक्ष्णतर भाव के कारण समझना चाहिये । ( इस सुन्दर छन्द को मदनावतार कहते हैं ) । इस प्रकार यह बुद्धिमानों द्वारा कथित तीनों भेदों सहित शुद्ध भाव कहा गया। अब मैं दूसरे अशुद्ध भाव का स्वरूप कहता हूँ; तुझसे कुछ छिपाऊंगा नहीं ।
१०. स्त्री का अशुद्ध भाव
अन्य के प्रति महान् द्वेष को प्राप्त होने से, धन के लोभ से, तर्क-वितर्क से, दुस्सह सौत का पद प्राप्त होने से ( अथवा सौत के से), बार बार समीप जाने से, अतिप्रसंग वा अति ईर्ष्या करने से
दुष्टमति पूर्वक पैरों में नमन तथा किये गये