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सुदर्शन-चरित
१७३ एवं राजनीति । इनको वह पढ़ता था और फिर गुनता था। उसी प्रकार पत्रछेद, नृत्य, गेय ( संगीत ), पटवाद्य, वीणावाद्य, खड्ग, कुन्त, व्यूहयन्त्र, चन्द्रवेध्य, मल्लयुद्ध, अतिरमणीक काष्ठकर्म, चित्रकर्म, लेप्यकर्म, धातुवाद, चूर्णयोग, अग्निस्तंभन, जलस्तंभन, इन्द्रजाल, पुष्पमाला, नारीलक्षण वा हस्ति-शिक्षा, इनका ज्ञान प्राप्त करता हुआ वह पुत्र रहने लगा । ( इस. छंद को कामबाण जानो)। इस प्रकार हर्षपूर्वक सोलह वर्ष व्यतीत होने पर वह नवयौवन में आरूढ़ हुआ। वह ऐसा मधुर प्रतीत होता था, जैसे मानों मनोहर सुरेन्द्र स्वर्ग से आ पड़ा हो ।
१०. शरीर के सुलक्षण युवक सुदर्शन के बाल काले और चिकने थे। सिर छत्र के समान गोल था। भाल दिव्य, उन्नत, विशाल और अर्द्धचन्द्र के समान था। उसकी भ्रूलताएँ ऐसी सुन्दर थीं, मानों कामदेव के धनुष के दो खंड हों। आंखों का जोड़ा ऐसा चंचल और रमणीक था, जैसे मानों दो मच्छ क्रीड़ा कर रहे हों। उसके कुंडलों से युक्त कान कोई अन्य ही शोभा दे रहे थे। उसका चंपा के फूल के समान नासिकावंश मृत्युलोक भर में प्रशंसनीय था। शुद्ध और स्निग्ध दंतपंक्ति मोतियों की भ्रान्ति उत्पन्न करती थी। पके बिंबाफल के वर्ण के ( लाल ) होठ क्यों न लक्ष्मी को इष्ट होंगे ? उसका विशाल मुख ऐसा शोभायमान था, जैसे मानों निरभ्र पूर्णचन्द्र ही हो। कंठ का मध्य भाग ऐसा भला दिखाई देता था, जैसे मानों सुरेन्द्र के हाथी की दो सूडें हों। अशोकपत्र को जीतनेवाले हाथ वज्र को चूर-चूर करने में समर्थ थे। गोलाकार वक्षस्थल ऐसा प्रतीत होता था जैसे मानों वह लक्ष्मी का क्रीड़ागृह हो। बीच में उसका कटिभाग स्वमुष्टि-ग्राह्य था, जैसे मानों वह वज्रदंड का मध्यभाग हो। नाभि का छिद्र ऐसा सुगम्भीर था, जैसे मानों अनंगरूपी सप का गृह हो। उसका नितंबभाग ऐसा शोभनीय था, जैसे मानों कामराज की पीठ हो। उसकी दोनों स्थूल जंघाएँ तो उपमा-रहित थीं। उसके गूढ़ गुल्फ ऐसे सुन्दर लगते थे, जैसे कामराजा के मंत्री। पैर कूर्माकार सुवर्ण-वर्ण
और दीर्घ अंगुलियों से युक्त थे। उसके नखों की पंक्ति खूब चमकीली थी। ( यह समानिक छंद है)। नाना प्रकार के ये लक्षण तथा अन्य जो इस संसार में निर्दोष दिखाई देते हैं व कवियों द्वारा वर्णन किये जाते हैं, वे सब धर्म के फल हैं।
११. युवक सुदर्शन के प्रति नगर-नारियों का मोह
सुदर्शन अपने मित्रों सहित नगर में घूमता हुआ ऐसा शोभायमान होता था, जैसे आकाश में तारापुंज सहित चन्द्रमा। उस समय तरुणियों का मुंड उसके सम्मुख ऐसा लगता था, जैसे ऐरावत के सम्मुख करिणियों का समूह। कोई अपने स्तनों को अधउघड़े करके अपने मन के भाव को कहती थी, केवल हाथ नहीं पकड़ती थी। कोई कहती-हे सुभग, कुछ देर स्थिर तो खड़े रहो, जबतक मेरे