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नयनन्दि विरचित कहे हुये उत्तम रत्नत्रय रूपी धर्म को धारण करनेवाला था। वह अपने परिजनों के हृदय को हरण करनेवाला तथा गुणों के समूह का निधान था। वह षोडश कलाओं से संयुक्त तथा सहज ही अविचल धैर्य धारण करता था। ऐसा वह श्रेणिक राजा मरकतमणि संयुक्त, रत्नों के समूह से जटित सिंहासन पर विराजमान था, मानों निर्मल तारों से संयुक्त आकाशरूपी प्रांगण में पूर्णचन्द्र स्थित हो।
६. विपुलाचल पर महावीर का समोसरण इस प्रकार जब राजा श्रेणिक सिंहासन पर विराजमान था, तब कोई एक मनुष्य उसके मन को आनंद देनेवाला वहाँ आकर उपस्थित हुआ। उसने आकर राजा को नमस्कार किया और उचित सम्मान पाकर कहा-हे राजन् जिनेश्वर वर्धमान स्वामी का यहाँ आगमन हुआ है। वे विपुलाचल पर्वत पर समवसरण के बीच इस प्रकार शोभायमान हैं, जैसे आकाश में नक्षत्रों के मध्य चन्द्रमा विराजमान हो। इस समाचार को सुनकर राजा श्रेणिक अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ। उस समय समस्त राजसभा में तत्काल क्षोभ उत्पन्न हुआ। हारों की शोभा से संयुक्त उर से उर और मुकुट से मुकुट टकराने लगा। जिस प्रकार मेघों के आगमन होने पर मयूर प्रसन्न होता है, उसी प्रकार हर्षित होकर राजा ने आनन्दभेरी बजवाई और वह सात पद आगे बढ़ा। वह वीर भगवान् को नमस्कार करके एक गजेन्द्र पर आरूढ़ हुआ, मानों नवीन मेघ पर पूर्णचन्द्र चमक रहा हो । उस समय रथ, यान, झंपान, भृत्य और तुरंग इस प्रकार चल पड़े, जैसे समुद्र में तरंगें चल रही हों। कपूर से अलंकृत महादेहधारी गज ऐसे शोभायमान हो रहे थे, जैसे विजली की चमक से उज्ज्वल मेघ ही हों। राजा श्रेणिक सुरेन्द्र के समान लीला सहित चला। ( यह वर्णन भुजंग प्रयात छंद में किया गया है।) हाथीरूपी मकरों सहित, छत्ररूपी फेन से आच्छादित, तुरगरूपी तुरंगयुक्त और रथरूपी वोचि सहित, एवं ध्वजमालारूपी चलायमान कल्लोलों से संयुक्त होने के कारण बह राजा संक्षुब्ध समुद्र के सदृश शोभायमान हुआ।
७. राजा की वंदन-यात्रा कहीं सूर्य के अश्वों के समान चंचल, खुरों के अग्रभाग से भूतल को खोदता हुआ चाबुक से आहत होकर घोड़ा वेग से निकल रहा था। कहीं सुरेन्द्र के हाथी अर्थात् ऐरावत के समान सजा हुआ, गण्डस्थल से मद भराता हुआ, हथिनी के साथ-साथ गज दौड़ रहा था। कहीं सुरांगनाओं को दुर्लभ, चंचल नेत्रों की शोभा द्वारा प्रेम उत्पन करनेवाले, नग्न खगों सहित भयंकर भट चल रहे थे। कहीं हंस के समान लोलागमन करती हुई कामिनी जिनेन्द्र भगवान की भक्ति से प्रेरित होकर हँसती हुई चल रही थी। कहीं पर पर्वत की वीहड़ता युक्त महावृक्षों से भरे हुए वन में ध्वज से ध्वज लग गया और रथ से रथ टकराकर भग्न हो गया। कहीं