________________
१६४ नयनन्दि विरचित
[२. ७सुकविकृत कथा। कुंकुम (केशर) और कपूर से भूषित एवं तिलक और अंजन लगा कर, वह उस वन राजि के समान शोभायमान थी, जो कुंकुम, कपूर, तिलक और अंजन वृक्षों से व्याप्त हो।
उदित दिनेश और सन्ध्या के समान परस्पर अनुरक्त उन दोनों सेठ-सेठानी का एक सुभग नाम का ग्वाला था, जो नई बहू के समान अत्यन्त भोला था। वह खूब ही अपने स्वामी की इच्छानुसार चलनेवाला था; अतएव उस कविकृत काव्य के समान था, जो छन्दानुसार चलता है। वह अपने वर्ग के हल्के लोगों को बहुत प्रिय था, जिस प्रकार कि किंपुरुषों को सुमेरु पर्वत का पृष्ठभाग प्रिय है। वह गउओं और भैंसों का पालन किया करता था; अतएव उस राजा के समान था, जो पृथ्वी एवं रानियों का पालन करता है। वह क्रीड़ा करता हुआ वन में रमण और भ्रमण किया करता था। वह बन्दरों के समान झाड़ों की डालियों से भूला करता व हरिण के समान उछाल भरा करता था। वह भ्रमर के समान गुनगुनाती हुई तानें छोड़ा करता था, तथा हर्षोत्फुल्ल होकर मयूर के समान नाचा करता था। गाय भैसों को वन में चरा कर, वह अन्य ग्वालों के साथ हंसमुख होता हुआ, अपने प्रिय घर को लौटता हुआ, ऐसा प्रतीत होता था, जैसे मानों वासुदेव कृष्ण अपने ग्वालबालों सहित प्रसन्नमुख गोठाण को लौट रहे हों।
७. गोपका मुनिराज-दर्शन एक बार वह ग्वाला उस घर में रहते, देखते, मल्हाते, जूझते, रूझते, सोते, जागते, करते, उठते, नाचते, चलते, बोलते, भागते, प्रसन्न होते या क्रोध करते, नमोकार मन्त्र को बराबर उच्चारण करता रहता था। इसे देख वह सम्यग्दृष्टि सेठ रुष्ट हुआ। उसने गोप को उसके गोत्र व बाप का नाम ले लेकर बुलाया, हांका मारा
और कहा-रे संत्यक्त, अपात्र, निकृष्ट, धीठ, जो मंत्र के शब्द संसार का तारण करनेवाले व मनोज्ञ हैं, उन्हें तू किस कारण जहां तहां घोषित करता और दूषित करता है ? इसे सुन कर उस गोप ने सेठ को नमस्कार करते हुए भक्तिभाव से कहा-हे आराध्य नाथ, माघ के महीने में, भीम अरण्य के बीच, सन्ध्या के समय एक निम्रन्थ मुनि योग्य मार्ग से ऐसे आ पहुंचे जैसे मानो योग के मार्ग से सुख व मोक्ष के पथ ही हों। उन्हें देखकर मुझे बहुत हर्ष हुआ। उन आराध्य साधु की वन्दना व स्तुति करके वहां से मैं घर आया। (इस छन्द का नाम मध्यमवीर विलास है )। उस रात्रि को मेरे मन में एक महान् चिन्ता के कारण मुझे नींद नहीं आई। जैसे मानों निद्रा असती, दुष्चित्ता स्त्री, अपने संकेत से चूककर भटकती फिरी हो।
८. पंचनमोकार मंत्र की प्राप्ति मैं उन विशुद्ध ज्ञानी साधु का स्मरण करते हुये रात्रि समाप्त होने के समय उठा और अग्नि लेकर लड़खड़ाता हुआ तुरन्त उसी स्थान पर गया