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उत्पत्ति और विनाश की तरह स्थिति का काल भी भिन्न ही होगा। उत्पाद का समय अर्थात् उसका प्रारम्भिक समय और विनाश अर्थात् उसका अन्तिम समय, को सिद्धसेन दिवाकर ने अंगुली के दृष्टान्त से और स्पष्ट किया है— अंगुली एक वस्तु है। अंगुली के आकुंचन
और प्रसरण का काल एक नहीं हो सकता।५१ वक्रता और सरलता एक ही वस्तु में एक ही काल में सम्भव न होने से क्रमवर्ती है। दो क्रमवर्ती पर्यायों में उत्पाद और नाश का काल भेद नहीं होता इसलिए जो समय अंगुली के आकुंचन रूप अवस्था के उत्पाद का है वही समय उसके प्रसरण रूप अवस्था के व्यय का है। दोनों ही अवस्थाओं में अंगुली नामक वस्तु स्थिर है। अत: एक ही अंगुली में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों की समकालिकता सिद्ध होती है।
सिद्धसेन ने उत्पाद आदि के भेदाभेद और त्रैकालिकता की सिद्धि का जो प्रयास किया है उसके मूल में उनकी अनेकान्तिक दृष्टि है। उन्होंने प्रत्येक विरोधी अवधारणा के समन्वय का प्रयास किया है। वे मानते हैं कि महासत्ता रूप द्रव्य तथा अन्तिम अविभाज्य अंश पर्याय से अतिरिक्त सभी पर्याय पदार्थ द्रव्य और पर्याय के उभय रूप होते हैं। द्रव्य और पर्याय दोनों मिलकर ही सत् का सर्वाङ्ग लक्षण बनते हैं। द्रव्य के सन्दर्भ में उन्होंने पर्याय को ही माना है तथा गुण को पर्याय में ही सन्निविष्ट माना है। तदनुसार गुणार्थिक नय की परिकल्पना करते हुए भी मूलत: द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक 'इन दो नयों में ही समूची तत्त्वमीमांसा एवं ज्ञानमीमांसा को अन्तर्भावित करने का प्रयास किया है। अनेकान्त के आधाररूप इस द्रव्य, गुण, पर्याय के सन्दर्भ में सिद्धसेन के विचार जहाँ अनेक अंशों में आगम-विचार-सरणि का समर्थन करते हैं वहीं उनके कतिपय स्वोपज्ञ मन्तव्यों की भी पुष्टि करते हैं। सन्दर्भ : १. जैनेन्द्र व्याकरण, ४.१.१५८. २. तत्त्वार्थसूत्र, ५/२९. ३. प्रवचनसार, ज्ञेयाधिकार-३. ४. अनुयोगद्वार, २५५. 5. Dr. Padmarajiah, Jain Theories of Reality & Knowledge, Jain
Sahitya Vikas Mandal, Bombay 1963, p. 26. ६. तत्त्वार्थसूत्र, ५/२९.
सन्मतिप्रकरण, १/१२. ८. वही, १/३१. ९. धवला, १/१/१/१/१७/६.
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