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उपलब्ध नहीं होते। द्रव्य का परिणमन ही पर्याय है और गुण उसी परिणमन की एक अभिव्यक्ति है। तत्त्वत: गुण और पर्याय में अभेद है। द्रव्य और पर्याय का भेदाभेदवाद
द्रव्य में गुण और पर्याय दोनों रहते हैं। गुण का अर्थ है- सहभावी धर्म या हमेशा रहने वाले धर्म तथा पर्याय का अर्थ है क्रमभावी धर्म या परिवर्तन को प्राप्त होते रहने वाले धर्म। सिद्धसेन ने आगमिक सन्दर्भो के आधार पर गुण और पर्याय के द्वैत का निराकरण कर दोनों की एकार्थता सिद्ध की। अब जब गुण और पर्याय एक हैं तो द्रव्य और पर्याय का क्या सम्बन्ध है, यह प्रश्न विचारणीय है।
न्याय-वैशेषिक आदि दर्शन भेदवादी होने के कारण गुण, कर्म आदि का द्रव्य से भेद मानते हैं तथा सांख्य और वेदान्ती उनका अभेद। जैन दार्शनिक दोनों में भेदाभेद का सम्बन्ध मानते हैं। आचाराङ्ग में कहा गया है- 'जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया'।४० अर्थात् जो आत्मा है वही विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वही आत्मा है। प्रथमदृष्टया यह सूत्र अभेद का वाचक प्रतीत होता है पर जैसा कि नियुक्तिकार ने कहा है- 'णत्थि जिणवयणं णयविहूणं', किसी भी कथन के हार्द को सापेक्षता के आधार पर ही समझा जा सकता है। ज्ञान आत्मा का परिणाम विशेष है, जो बदलता भी रहता है, अत: पर्याय दृष्टि से दोनों भिन्न भी है; किन्तु फल की दृष्टि से विचार करें तो आत्मा की ज्ञान से अभित्रता सिद्ध होती है। ज्ञान का फल है विरति। मिथ्यादृष्टि को ज्ञान नहीं होता और न ही विरति इसलिए उसका ज्ञान अज्ञान कहलाता है। भगवतीसूत्र में आया भंते सिय णाणे, सिय अण्णाणे, णाणे पुण नियमं आया' कहकर सूत्रकार ने आत्मा को ज्ञान से कथंचित् भित्र और कथंचित् अभिन्न कहा है। आत्मा ज्ञान का परिणाम है अत: वह नियमत: आत्मा ही है। इसी प्रकार द्रव्य और पर्याय दोनों कथंचित् भिन्न
और कथंचित् अभिन्न हैं। सिद्धसेन दिवाकर के अनुसार द्रव्यार्थिक नय का विषय हैद्रव्य और पर्यायार्थिकनय का विषय है- पर्याय। ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं। सिद्धसेन का मत है कि दोनों नय अलग-अलग मिथ्यादृष्टि हैं। दोनों में से किसी एक नय का विषय सत् का लक्षण नहीं बनता। सामान्य और विशेष मिलकर ही सत् का लक्षण बनते हैं, अत: द्रव्य और पर्याय दोनों भिन्नाभित्र हैं। द्रव्य : उत्पाद, व्यय और प्रौव्य का समन्वय
___ 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इस परिभाषा के अनुसार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की समन्वित अवस्था ही सत् या द्रव्य कहलाती है। स्थानाङ्ग २ में इसे मातृकापद कहा गया है। जिस प्रकार समस्त शास्त्रों का आधार अकार आदि वर्णाक्षर हैं उसी प्रकार समस्त तत्त्वमीमांसा का आधार यह त्रिपदी है। अन्यत्र यह 'उप्पत्रेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' इस रूप में भी प्राप्त होता है। सिद्धसेन दिवाकर ने उमास्वाति द्रव्य के लक्षण को यथावत्
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