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अस्तित्व मानने पर प्रश्न उठता है कि विशेषों में विशेषत्व होता है या नहीं? यदि विशेषों में विशेषत्व होता है तो कहना होगा कि वही विशेषत्व सामान्यवादियों का सामान्य है। यदि यह कहें कि विशेषों में विशेषत्व नहीं होता तो विशेष नि:स्वभाव हो जायेंगे। अत: सामान्य ही सत् है।३२
जैन दर्शन के अनुसार वस्तु तत्त्व न तो केवल सामान्य है न केवल विशेष बल्कि वह सामान्य-विशेषात्मक है। विशेष रहित सामान्य और सामान्य रहित विशेष खरविषाणवत असम्भव है। द्रव्य, गुण और पर्याय में से अभेदवादी केवल द्रव्य को ही पदार्थ मानते हैं। गुण और पर्याय के आधार पर होने वाली भिन्नता उनकी दृष्टि से मिथ्या अथवा प्रतिभास मात्र है। जैन दार्शनिक द्रव्य को गुणपर्यायवत् मानने से द्रव्य
और गुण का नितान्त अभेद स्वीकार नहीं करते।३३ डॉ० महेन्द्र कुमार जैन के अनुसार गुण को द्रव्य से पृथक् नहीं किया जा सकता, इसलिए वे द्रव्य से अभिन्न हैं; किन्तु प्रयोजन आदि भेद से उसका विभिन्न रूप से निरूपण किया जा सकता है, अत: वे भित्र भी हैं।२४
सिद्धसेन दिवाकर का अभिमत
सिद्धसेन दिवाकर के अनुसार द्रव्य और गुण दोनों परस्पर भिन्नाभित्र हैं। द्रव्य और गुण में न तो एकान्त अभेद है न एकान्त भेद। सामान्य और विशेष दोनों परस्पर अनुविद्ध हैं। एकान्त सामान्य अथवा एकान्त विशेष के प्रतिपादन का अर्थ होगा द्रव्यरहित पर्याय और पर्यायरहित द्रव्य का प्रतिपादन। वस्तुत: कोई भी विचार या वचन एकान्त सामान्य या विशेष के आधार पर प्रवृत्ति नहीं कर सकता। दोनों सापेक्ष रहकर ही यथार्थ का प्रतिपादन कर सकते हैं। वृत्तिकार अभयदेवसूरि नियम का उल्लेख करते हैं- यत् यदात्मकं भवति तत् तद्भावे न भवति।३५ सिद्धसेन कहते हैं कि सामान्य के अभाव में विशेष का और विशेष के अभाव में सामान्य का सद्भाव कथमपि सम्भव नहीं है। जिस प्रकार एक ही पुरुष सम्बन्धों की भिन्नता के कारण पिता, पुत्र, भाञ्जा, मामा आदि के रूप में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा पुकारा जाता है उसी प्रकार एक और निर्विशेष होने पर भी सामान्य भिन्न-भिन्न इन्द्रियों के सम्बन्ध से भिन्न रूप में व्यवहत होता है। वही सामान्य जब नेत्रग्राह्य होता है तो रूप एवं श्रोतग्राह्य होता है तो शब्द कहलाता है। अत: गुण वस्तुत: द्रव्य से भिन्न नहीं है परमार्थत: सत्ता द्रव्य की ही है।२६ ।
सन्मति-प्रकरण में सिद्धसेन ने अभेदवादी के उपर्युक्त मन्तव्य को पूर्वपक्ष में रखकर खण्डन किया है। वे अभेदवादी विचार का इस अंश तक तो समर्थन करते हैं कि सम्बन्ध विशेष के कारण वही सामान्य द्रव्य भिन्न-भिन्न रूपों में व्यवहत होता है, परन्तु यहाँ प्रश्न उठता है कि जहाँ एक ही इन्द्रिय के सम्बन्ध से सम्बद्ध दो वस्तुओं में विषमता परिलक्षित होती है, वहाँ इसकी उपपत्ति कैसे हो? उदाहरणार्थ- एक समान
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