________________
रूप-रस-गंध-फासा असमाणग्गहण-लक्खणा जम्हा। तम्हा दव्वाणुगया गुण त्ति ते केइ इच्छन्ति।। २३
वृत्तिकार अभयदेव सरि ने अपने 'सन्मति-तर्क-प्रकरणम' में 'केइ' पद की व्याख्या में भेदवादी वैशेषिकों तथा ‘स्वयूथ्य' अर्थात् कतिपय सिद्धान्त से अनभिज्ञ जैनाचार्यों का ग्रहण किया है। पं० सुखलालजी एवं बेचरदासजी ने वृत्तिकार के अभिमत की समीक्षा की है। उनकी मान्यता है कि द्रव्य को गुणों से भिन्न मानने वाला कोई जैनाचार्य तो सम्भव ही नहीं है।२४ उपाध्याय यशोविजय ने अपने 'द्रव्य-गुण-पर्याय नो रास'२५ में "कोइक दिगम्बरानुसारी शक्तिरूप गुण भाषइ छइ, जे माटे ते ...... गुण पर्याय नु कारण गुण'' कहकर किसी दिगम्बर विद्वान् द्वारा भेद की परम्परा मानने का उल्लेख किया है। किन्तु यह दिगम्बर विद्वान् कौन है? यह कहना सर्वथा कठिन है, क्योंकि द्रव्य और गण में सर्वथा भेद जैन दर्शन की अनेकान्त व्यवस्था के नितान्त प्रतिकूल है। फिर भी यह कल्पना की जा सकती है कि द्रव्य और गण में भेद स्वीकारने वाले वैशेषिकों से प्रभावित रहे होंगे।
इस एकान्त भेदवाद का प्रबल खण्डन उमास्वाति, सिद्धसेन, अकलंक, कुन्दकुन्द, हरिभद्र आदि आचार्यों ने किया है। न्याय-वैशेषिक दार्शनिक व्यपदेश, संख्या, संस्थान, विषय आदि के आधार पर द्रव्य और गुण को भिन्न बतलाते हैं; किन्तु कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार व्यपदेश, संख्या, संस्थान, विषय आदि जिस तरह भेद में होते हैं उसी तरह अभेद में भी होते हैं। जहाँ अनेक द्रव्यों की अपेक्षा प्रतिपादन हो वहाँ व्यपदेश आदि का भेद-भेदवाद का प्रतीक बन जाता है। जहाँ एक ही द्रव्य की अपेक्षा कथन हो वहाँ व्यपदेश आदि अभेद का प्रतीक बन जाता है।२६ अत: द्रव्य और गुण सर्वथा भिन्न नहीं हैं। सर्वथा भेद वहीं होता है जहाँ प्रदेश भेद हो। जिस प्रकार स्वर्ण
और पीत में संज्ञा आदि का भेद होने पर भी प्रदेश भेद नहीं है उसी प्रकार द्रव्य और गण में भी प्रदेश भेद नहीं है। वैशेषिकों का यह तर्क कि धर्म और धर्मी सर्वथा भिन्न होने पर भी समवाय सम्बन्ध से सम्बन्धित होते हैं, जैन दर्शन को मान्य नहीं है। जैन दार्शनिक कहते हैं कि एक तो समवाय की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, यदि समवाय की स्वतन्त्र सत्ता मान भी लें तो जिस प्रकार पट में पटत्व का हेतु समवाय है उसी प्रकार समवाय में समवायत्व के सम्बन्ध का हेतु कोई दूसरा समवाय होना चाहिए। इसी तरह दूसरे समवाय में समवायत्व के सम्बन्ध का हेतु कोई तीसरा समवाय मानना होगा और इस प्रकार अनवस्था दोष की प्रसक्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि समवाय में समवायत्व का होना अपेक्षित नहीं है तो समवाय निःस्वभाव हो जायेगा। अत: धर्म और धर्मी को सर्वथा भिन्न मानना और फिर उसमें समवाय सम्बन्ध मानना कथमपि युक्तियुक्त नहीं है। जैन दर्शन ऐसे पदार्थों में तादात्म्य सम्बन्ध मानता है।२७ जैनों के अनुसार गुण से रहित होकर न तो द्रव्य की कोई सत्ता होती है, न द्रव्य से रहित गुण की। अत: सत्ता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org