Book Title: Sramana 2001 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 11
________________ ६ २० तथा पुरुष रूप में सदृश पर्याय के अन्तर्गत दूसरे बाल, युवा आदि जो भेद हैं उन्हें अर्थपर्याय कहते हैं । २° दूसरे शब्दों में कहें तो एक ही पर्याय की क्रमभावी पर्यायों को अर्थपर्याय तथा पदार्थ की उसके विभिन्न प्रकारों एवं भेदों में जो पर्याय होती है, उसे व्यञ्जनपर्याय कहते हैं। इनमें से व्यञ्जनपर्याय स्थूल और दीर्घकालिक पर्याय है तथा अर्थपर्याय सूक्ष्म और वर्तमानकालिक पर्याय है । अर्थपर्याय मूर्त-अमूर्त सभी द्रव्यों में होती है जबकि व्यञ्जनपर्याय का सम्बन्ध केवल मूर्त अथवा संसारी जीव व पुद्गल के साथ ही है। पर्यायों का एक विभाजन स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय के रूप में भी मिलता है, जो पर्याय परनिमित्तों से निरपेक्ष होती है उसे स्वभाव पर्याय तथा जो परनिमित्तों से सापेक्ष होती है उसे विभाव पर्याय कहा जाता है। पर्याय के लक्षण हैं- एकत्व, पृथकत्व, संख्या, संस्थान, संयोग तथा विभाग । २१ पर्याय द्रव्य से सर्वथा भिन्न नहीं पायी जाती; किन्तु वह द्रव्य स्वरूप ही उपलब्ध होती है। द्रव्य और गुण का सम्बन्ध द्रव्य और गुण के सम्बन्ध को लेकर भारतीय दर्शन में मुख्य रूप से दो अवधारणायें उपलब्ध होती हैं। उनमें से एक अवधारणा एकान्ततः भिन्नता को आधार मानती है तो दूसरी एकान्ततः अभिन्नता को । एकान्त भेद को मानने वाले वैशेषिकों अनुसार गुण सर्वथा भिन्न हैं। आद्य क्षण में गुण निर्गुण होता है तदनन्तर समवाय नामक पदार्थ के द्वारा दोनों में सम्बन्ध स्थापित होता है। द्रव्य और गुण इस पृथकता के दो मुख्य कारण हैं की १. लक्षण की भिन्नता २. ग्राहक प्रमाण की भिन्नता । वैशेषिकों का कहना है कि द्रव्य और गुण के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं। द्रव्य गुणों का आधार है जबकि गुण द्रव्य के आश्रित रहते हैं। द्रव्य गुणवान् होता है जबकि गुण निर्गुण होते हैं । द्रव्य क्रियावान् होता है जबकि गुण निष्क्रिय होते हैं। अतः दोनों नितान्त भिन्न हैं।२२ इसी प्रकार गुण और द्रव्य के ग्राहक प्रमाण भी भिन्न-भिन्न हैं। घट, पट आदि द्रव्यों का ग्रहण एक से अधिक इन्द्रियों द्वारा होता है और इसमें मानसिक अनुसन्धान भी साथ होता है जबकि रूप, रस, गन्ध आदि गुणों का ग्रहण एक इन्द्रिय सापेक्ष होता है तथा इसमें मानसिक अनुसन्धान भी नहीं होता। इस प्रकार दोनों के लक्षणऔर ग्राहक प्रमाण भिन्न होने से दोनों पृथक् हैं। सिद्धसेन दिवाकर ने एकान्तभेदवादी वैशेषिकों की इस दलील को सन्मति प्रकरण में 'केइ' (केचिद्) शब्द द्वारा पूर्वपक्ष के रूप में रखा है --- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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