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अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, पर्यायत्व, असर्वगतत्व, अनादिसन्तति-बन्धनबन्धत्व, प्रदेशत्व, अरूपत्व, नित्यत्व आदि भावों को पारिणामिक भाव कहा है। १३ गुण परिणमनशील हैं; किन्तु एक गुण अन्य गुण रूप परिणमन नहीं करता ।
पर्याय स्वरूप और प्रकार
द्रव्य के विकार अथवा अवस्था विशेष को पर्याय कहते हैं। जैन दार्शनिकों के अनुसार द्रव्य में घटित होने वाले विभिन्न परिवर्तन ही पर्याय कहलाते हैं। व्युत्पत्ति के अनुसार जो स्वभाव-विभाव रूप से गमन करती है, परिणमन करती है, वह पर्याय है । ४ दूसरी परिभाषा के अनुसार जो द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित रहता है, उसे पर्याय कहा जाता है। १५ जिस प्रकार द्रव्य का सहभावी धर्म गुण कहलाता है उसी प्रकार द्रव्य का क्रमभावी धर्म पर्याय कहलाता है। जैसे— सुख-दुःख, हर्ष आदि। दूसरे शब्दों में कहें तो द्रव्य का अन्वयी अंश गुण और व्यतिरेकी अंश पर्याय कहलाता है। द्रव्य भेद में अभेद का प्रतीक है जबकि पर्याय अभेद में भेद का। कहा भी गया है। ‘परिसमन्तादायः पर्यायः १६ अर्थात् जो सब ओर से भेद को प्राप्त करे वह पर्याय है। पूज्यपाद ने पर्याय, विशेष, अपवाद, व्यावृत्ति को एकार्थक बताया है। १७ पर्याय के लिये 'परिणाम' शब्द का प्रयोग भी मिलता है। उर्ध्वतासामान्य रूप द्रव्य की पर्यायों को परिणाम कहा जाता है । उर्ध्वता सामान्य का अर्थ है - कालकृत भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में समानता की अनुभूति । जैसे द्रव्यार्थिकनय से जीव शाश्वत है और पर्यायार्थिक नय से अशाश्वत है । उमास्वाति ने भी पर्याय के अर्थ में परिणाम का प्रयोग किया है । १८ एक धर्म की निवृत्ति होने पर इतर धर्म की उत्पत्तिरूप द्रव्य की जो परिस्पन्दनात्मक पर्याय है उसे उर्ध्वता सामान्य परिणाम कहते हैं।
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पर्यायों के प्रकारों की आगमिक आधारों पर चर्चा करते हुए मुनि कन्हैयालाल 'कमल' ने द्रव्यानुयोग ( पृ० ३८) में कहा है कि प्रज्ञापनासूत्र में पर्याय के दो भेद प्रतिपादित हैं- (१) जीव पर्याय तथा (२) अजीव पर्याय। ये दोनों प्रकार की पर्यायें अनन्त होती हैं। पुनः पर्याय के दो भेद हैं- द्रव्य पर्याय और गुण पर्याय । " अनेक द्रव्यों में ऐक्य का बोध कराने में कारणभूत द्रव्य पर्याय है। गुणपर्याय वह है जो गुण के द्वारा अन्वय रूप एकत्व प्रतिपत्ति का कारणभूत होती है। एक अन्य अपेक्षा से पर्याय के दो भेद किये गये हैं- १. अर्थपर्याय और २. व्यञ्जनपर्याय । भेदों की परम्परा में जितना सदृश परिणाम प्रवाह किसी एक शब्द के लिये वाच्य बनकर प्रयुक्त होता है, वह पर्याय व्यञ्जनपर्याय कहलाता है तथा परम्परा में जो अन्तिम और अविभाज्य है वह अर्थ पर्याय कहलाता है, जैसे चेतन पदार्थ का सामान्य रूप जीवत्व है। काल, कर्म आदि के कारण उनमें उपाधिकृत संसारित्व, मनुष्यत्व, पुरुषत्व आदि भेदों वाली परम्पराओं में से 'पुरुष' शब्द का प्रतिपाद्य जो सदृश पर्याय प्रवाह है वह व्यञ्जनपर्याय
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