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मन्बीरः [अण्ड+ईरच्] पूर्ण विकसित पुरुष, बलवान् । निमित्तं इस कारण, फलतः, इस कारण से; एव हृष्टपुष्ट पुरुष।
( अव्य० ) इस ही लिए-ऊर्य अब से लेकर, इसके अत् (म्बा० पर० अक० वेट्) [अतति, अत्त-अतित] 1. बाद; परं ( क ) इसके आगे, और फिर, (अपा० के
जाना, चलना, घूमना, लगातार चलते रहना 2. प्राप्त- साथ) इसके पश्चात् ( ख ) इसके परे, इससे आगे; करना (बहुधा वै०) 3. बांधना।
भाग्यायत्तमतः परम्-श० ४।१६। । अतट (वि०)[न० ब०] तटरहित, खड़ी ढाल वाला,-ट: अतसः [ अत+अस] 1. हवा, वायु 2. आत्मा 3. अतसी चट्टान, ढलवा चट्टान।
के रेशों से बना हुआ कपड़ा ( यह शब्द बहुधा नपुं० अतथा (अव्य०) [न +तत्+था] ऐसा नहीं, उचित होता है)। (वि०) अनधिकारी, अनभ्यस्त।
अतसी [अत्+असिच् डीप्] 1. सन 2. पटसन 3. अलसी । अतबर्हम् (अव्य०) [ना+तदहम् न० त०] अनुचित रूप अति ( अव्य) अत+इ] 1. विशेषण और क्रियासे, अनधिकृत रूप से।
विशेषणों से पूर्व प्रयुक्त होने वाला उपसर्ग-बहुत, अतद्गुणः (सा. शा०) 'अतग्राही', एक अलंकार का अधिक, अतिशय, अत्यधिक उत्कर्ष को भी यह शब्द
नाम जिसमें कि प्रतिपाद्य पदार्थ-कारण के विद्यमान प्रकट करता है, मातिदरे अत्यविक दूर नहीं; क्रिया रहते हुए भी दूसरे के गुण को ग्रहण नहीं करता- और कृदन्त रूपों से पूर्व भी प्रयुक्त होता है-स्वभावो काव्य०१०।
ह्यतिरिच्यते आदि 2. (क्रियाओं के साथ ) ऊपर, अतन्त्र (वि.) [स्त्री० -त्री] [न० ब०] 1. बिना डोरी परे; अति-इ-परे जाना, इसी प्रकार क्रम, °चर
का, या बिना संगीत के तार का 2. बिना लगाम का और वह आदि, ऐसे अवसरों पर 'अति' उपसर्ग समझा 3. विचारणीय नियम की कोटि से बाहर की वस्तु जो जाता है। 3. ( क) ( संज्ञा व सर्वनामों के साथ ) अनिवार्य रूप से बंधन की कोटि में न हो-ह्रस्व- परे, पार करते हुए, श्रेष्ठतर, प्रमुख, पूज्य, उच्चतर, ग्रहणमतंत्रम्-सिद्धा. 4. सूत्ररहित या अनुभव सिद्ध ऊपर, कर्मप्रवचनीय के रूप में द्वितीया विभक्ति के क्रिया।
साथ; या बहुब्रीहि के प्रथम पद के रूप में, अथवा अतन्त्र-अतन्द्रित-अतन्द्रिन्-अतनिल-(वि.) [नास्ति तन्द्रा तत्पुरुष समास में सामान्यतः उच्चता और प्रमुखता के
यस्य-न० ब०, न तन्द्रितः न० त०,न० त०] सावधान, अर्थ को प्रकट करता है; अतिगो, गार्यः-प्रशस्ता अम्लान, सतर्क, जागरूक; अतंद्विता सा स्वयमेव वृक्ष- गौः, शोभनो गार्यः, राजन् -बढ़िया राजा; अथवा कान्-कु० ५।१४, रघु० १७१३९ ।
द्वितीय पद के साथ लग कर इसका अर्थ-'अतिक्रांत' अतपस-अतपस्क वि० [न० ब० ] धार्मिक तपश्चर्या की होता है, परन्तु इस अवस्था में द्वितीय पद में दूसरी अवहेलना करने वाला।
विभक्ति होती है, अतिमर्यः मर्त्यमतिक्रान्तः, °माल: अतर्क (वि.) [न० ब०] तर्कहीन, युक्तिरहित,-कः [न.
-अतिक्रान्तो मालाम्, इसी प्रकार अतिकाय, दे० त०] 1. युक्ति या तर्क का अभाव, बुरा तर्क
°केशर अति देवान् कृष्ण:-सिद्धा० ( ख ) ( कृदन्त 2. तर्कहीन बहस करने वाला।
शब्दों से पूर्व ) अतिरंजित, अत्यधिक, अतिमात्र, उदा० अकित (वि.)[न० त०] न सोचा हुआ, अप्रत्या
आवरः-अत्यधिक आदर, आशा=अतिरंजित आशा, शित,-तं (कि० वि०) अप्रत्याशित रूप से । सम०
इसी प्रकार भयम्, तृष्णा, आनन्दः इत्यादि (ग) -आगत,-उपनत ( वि०) अप्रत्याशित रूप से होने
अयोग्य, अनुचित, असंप्रति ( अयुक्तता ) तथा क्षेप वाला, अकस्मात् होने वाला-°उपपन्न दर्शनम- (निन्दा ) के अर्थ में, यथा-अतिनिद्रम =निद्रा संप्रति कु०६।५४ ।
न युज्यते- सिद्धा। अतल (वि.) [नः ब.] तल रहित,लं [न० त०] अतिकया 1. अतिरंजित कहानी 2. निरर्थक भाषण।
पाताल,-लः शिव। सम०-स्पृश्,-स्पर्श (वि०) तल अतिकर्षणं [ अति+कृष् + ल्युट् ] बहुत अधिक परिश्रम, रहित, बहुत गहरा, अथाह ।
अत्यधिक मेहनत । अतस् ( अव्य०) [ इदम्+तसिल ] 1. इसकी अपेक्षा, अतिकश (वि०)[ अतिक्रान्तः कशाम्-अ०स०] कोड़े को न इससे ( बहुधा तुलनात्मक अर्थ वाला ) किमु परमतो
मानने वाला, घोड़े की भांति वश में न आने वाला। नर्तयसि माम्-भर्तृ० ३, ६. 2. इस या उस कारण | अतिकाय ( वि०) [ अत्युत्कट: कायो यस्य-ब० स०] से, फलतः, सो, इस लिए ( 'यत्' 'यस्मात्' और 'हि' भारी डील डौल वाला, विशालकाय । का सहसंबंधी-अभिहित या अध्याहृत ) रघु० २।४३, | अतिकच्छ ( वि० ) [ अत्युत्कट: कृच्छ:-प्रा० स० ] अति ३।५०; कु० २१५. 3. यहाँ से, अब से या इस स्थान कठिन, -सछ बहुत बड़ा कष्ट; १२ रात्रियों तक से; (-परम्,-ऊर्ध्वम् ) इसके पश्चात् । सम०-अर्थ,- कठिन तपस्या करने का व्रत; मनु० १११२१३-४ ।
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