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सृष्टिखण्ड ]
• पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
आवश्यकता नहीं थी। किसीको शस्त्र धारण करनेका भी कोई प्रयोजन नहीं था। मनुष्योंको विनाश एवं वैषम्यका दुःख नहीं देखना पड़ता था । अर्थशास्त्रमें किसीका आदर नहीं था। सब लोग धर्ममें ही संलग्न रहते थे। इस प्रकार मैंने तुमसे पृथ्वीके दोहन पात्रोंका वर्णन किया तथा जैसा जैसा दूध दुहा गया था, वह भी बता दिया। राजा पृथु बड़े विज्ञ थे; जिनकी जैसी रुचि थी, उसीके अनुसार उन्होंने सबको दूध प्रदान किया। यह प्रसङ्ग यज्ञ और श्राद्ध सभी अवसरोंपर सुनानेके योग्य हैं; इसे मैंने तुम्हें सुना दिया। यह भूमि धर्मात्मा पृथुकी कन्या मानी गयी; इसीसे विद्वान् पुरुष 'पृथ्वी' कहकर इसकी स्तुति करते हैं।
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! आप तत्त्वके ज्ञाता हैं; अब क्रमशः सूर्यवंश और चन्द्रवंशका पूरा-पूरा एवं यथार्थ वर्णन कीजिये ।
पुलस्त्यजीने कहा- राजन् ! पूर्वकालमें कश्यपजीसे अदिति के गर्भसे विवस्वान् नामक पुत्र हुए। विवस्वान्के तीन स्त्रियाँ थीं—संज्ञा, राशी और प्रभा। राशीने रैवत नामक पुत्र उत्पन्न किया। प्रभासे प्रभातकी उत्पत्ति हुई। संज्ञा विश्वकर्माकी पुत्री थी। उसने वैवस्वत मनुको जन्म दिया। कुछ काल पश्चात् संज्ञाके गर्भसे यम और यमुना नामक दो जुड़वी सन्तानें पैदा हुई। तदनन्तर वह विवस्वान् (सूर्य) के तेजोमय स्वरूपको न सह सकी, अतः उसने अपने शरीरसे अपने ही समान रूपवाली एक नारीको प्रकट किया। उसका नाम छाया हुआ। छाया सामने खड़ी होकर बोली- 'देवि ! मेरे लिये क्या आज्ञा है ?' संज्ञाने कहा – 'छाया! तुम मेरे स्वामीकी सेवा करो, साथ ही मेरे बच्चोंका भी माताकी भाँति स्नेहपूर्वक पालन करना।' 'तथास्तु' कहकर छाया भगवान् सूर्यके पास गयी। वह उनसे अपनी कामना पूर्ण करना चाहती थी। सूर्यने भी यह समझकर कि यह उत्तम व्रतका पालन करनेवाली संज्ञा ही है, बड़े आदरके साथ उसकी कामना की। छायाने सूर्यसे सावर्ण मनुको उत्पन्न किया। उनका वर्ण भी वैवस्वत मनुके समान होनेके कारण उनका नाम सावर्ण मनु पड़ गया। तत्पश्चात्
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भगवान् भास्करने छायाके गर्भसे क्रमशः शनैश्वर नामक पुत्र तथा तपती और विष्टि नामकी कन्याओंको जन्म दिया ।
एक समय महायशस्वी यमराज वैराग्यके कारण पुष्कर तीर्थमें गये और वहाँ फल, फेन एवं वायुका आहार करते हुए कठोर तपस्या करने लगे। उन्होंने सौ वर्षोंतक तपस्याके द्वारा ब्रह्माजीकी आराधना की। उनके तपके प्रभावसे देवेश्वर ब्रह्माजी सन्तुष्ट हो गये; तब यमराजने उनसे लोकपालका पद, अक्षय पितृलोकका राज्य तथा धर्माधर्ममय जगत्की देख-रेखका अधिकार माँगा। इस प्रकार उन्हें ब्रह्माजीसे लोकपाल - पदवी प्राप्त हुई। साथ ही उन्हें पितृलोकका राज्य और धर्माधर्मके निर्णयका अधिकार भी मिल गया।
छायाके पुत्र शनैश्चर भी तपके प्रभावसे ग्रहोंकी समानताको प्राप्त हुए। यमुना और तपती- ये दोनों सूर्य-कन्याएँ नदी हो गयीं। विष्टिका स्वरूप बड़ा भयंकर था; वह कालरूपसे स्थित हुई। वैवस्वत मनुके दस महाबली पुत्र हुए, उन सबमें 'इल' ज्येष्ठ थे। शेष पुत्रोंके नाम इस प्रकार है— इक्ष्वाकु, कुशनाभ, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करूष, महाबली शर्याति, पृषध तथा नाभाग । ये सभी दिव्य मनुष्य थे। राजा मनु अपने ज्येष्ठ और धर्मात्मा पुत्र 'इल' को राज्यपर अभिषिक्त करके स्वयं पुष्करके तपोवनमें तपस्या करनेके लिये चले गये । तदनन्तर उनकी तपस्याको सफल करनेके लिये वरदाता ब्रह्माजी आये और बोले— 'मनो! तुम्हारा कल्याण हो, तुम अपनी इच्छाके अनुसार वर माँगो।'
मनुने कहा - स्वामिन्! आपकी कृपासे पृथ्वीके सम्पूर्ण राजा धर्मपरायण, ऐश्वर्यशाली तथा मेरे अधीन हों। 'तथास्तु' कहकर देवेश्वर ब्रह्माजी वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर, मनु अपनी राजधानीमें आकर पूर्ववत् रहने लगे। इसके बाद राजा इल अर्थसिद्धिके लिये इस भूमण्डलपर विचरने लगे। वे सम्पूर्ण द्वीपोंमें घूम-घूमकर वहाँके राजाओंको अपने वशमें करते थे। एक दिन प्रतापी इल रथमें बैठकर भगवान् शङ्करके महान् उपवनमें गये, जो कल्पवृक्षकी लताओंसे व्याप्त एवं