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इतनी आत्मीय भावना से जब हम स्वयं युवराज के द्वारा निमन्त्रित हैं तो यह हमारा अहोभाग्य ही है। मालूम हुआ कि आप लोगों ने मेरे लिए कल तक प्रतीक्षा करने का निश्चय किया था। आप लोग जितने दिन चाहें हमारे अतिथि बनकर रह सकते हैं। परन्तु प्रस्तुत प्रसंग में आप लोग जैसा उचित समझें वैसा करें।"
"आपके दर्शन भी हो गये। इसलिए सुबह तड़के ही ठण्डे वक्त में हम यहाँ से चल देंगे। इसके लिए आप अनुमति दें।"
"जैसी इच्छा हो, करें। अब आप लोग जाकर आराम करें। हमारे नौकर लेंका से कहेंगे तो वह सारी व्यवस्था कर देगा।"
दोनों राजदूत उठ खड़े हुए, परन्तु वहाँ से हिले नहीं। "क्यों, क्या चाहिए था? क्या कुछ और कहना शेष है?"
बड़े संकोच से रेविमय्या ने कहा, "क्षमा करें। जब हम आये तब फाटक पर हो छोटो अप्पाजी से मिले थे। वे ही हमें अन्दर ले आयी थीं। फिर उनके दर्शन नहीं हुए। अगर हम सुबह तड़के ही चले जाएँ तो फिर हमें उनके दर्शन करने का अवसर ही न मिलेगा? यदि कोई आपत्ति न हो, उन्हें एक बार और देखने की इच्छा है।"
"शायद सोती होगी। गालब्बे ! देखो तो अगर अम्माजी सोयी न हो तो, उसे कुछ देर के लिए यहां भेजो।" कहकर हेगड़े मारसिंगय्या ने राजदूतों से कहा, "तब तो उसने तुम लोगों को तंग किया होगा।"
रेविमय्या ने कहा, "ऐसा कुछ नहीं। उनकी उम्र के बच्चों में वह होशियारी, और बुद्धिमानी, वह गाम्भीर्य और संयम, और वह धीरता-निर्भयता दुर्लभ है। इसलिए उस बालिका को फिर से देखने की इच्छा हुई। आप अन्यथा न समझें।"
"कुछ नहीं। तुम लोग बैठो। बच्चों को प्यार करने का सबको अधिकार है। इसमें अन्यथा समझने की क्या बात है?"
दोनों राजभट बैठ गये। गालब्बे शान्तला के साथ आयी। शान्तला ने पूछा, "अप्पाजी! मुझे बुलाया?"
"ये लोग कल सुबह तड़के ही जानेवाले हैं। आते वक्त तो इन्होंने तुम्हें देखा था फिर तुम्हें देख नहीं सके। वे फिर तुम्हें देखना चाहते थे। अत: कहला भेजा।"
"कल दोपहर जाने की बात कह रहे थे।"
"हीं, उन लोगों ने वैसा ही सोचा था। मैं आ गया तो उनका काम बन गया। इसलिए अभी जा रहे हैं।"
"कल दोपहर तक भी आप न आते तब ये लोग क्या करते?" शान्तला ने पूछा। "अब तो आ गया हूँ न ?" हेगड़े ने कहा। "आये तो क्या हुआ? ये लोग कल दोपहर ही को जाएंगे।" "अम्माजी, उन्हें बहुत काम करने के हैं। राज-काज पर लगे लोग यों ही समय
26 :: पट्टमहादेवी शान्तला