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"क्या यह तुम्हारा अनुमान है या अनुभव ?" "राजमहल में जो हेगड़तियाँ हो आयी हैं उनसे मैंने ऐसी बातें सुनी हैं।"
"तभी कहा न? दूसरों की बात पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। यदि हमारी हेग्गड़ती को दु:ख होगा तो वह हमारे लिए क्या सन्तोष की बात होगी? अब को बार दोनों साथ चलेंगे। वहाँ से लौटने के बाद यदि दुबारा बुलावा आएगा तब जाने न जाने का निर्णय तुम ही पर छोड़ दूंगा।"
"हेग्गड़ेजी की आज्ञा हुई तो वहीं करेंगे, उपनीत होनेवाले राजकुमार की क्या आयु है ?"
"सोलह? क्यों?" "बस, यों ही पूछा। उपनयन करने में इतनी देरी क्यों की?"
"शायद पाँच वर्ष हुए होंगे। महाराजा की षष्ठिपूर्ति शान्ति के दो-तीन वर्ष बाद महाराजा एक गम्भीर बीमारी के शिकार हुए। उस रोग से मुक्त होंगे-ऐसी उम्मीद किसी को नहीं थी। रोग से मुक्ति तो मिल गयी, परन्तु बहुत कमजोर ही रहे। राजवैद्य भी कुछ कह नहीं सके थे। उस प्रसंग में युवराज अभिषिक्त हो जाए उसके बाद ही बड़े लड़के का उपनयन करने की शायद सोचते रहे होंगे।"
"तो क्या युवराज पिता की मृत्यु चाहते थे?"
"छी, छी! ऐसा नहीं कहना चाहिए। जो जन्म लेते हैं वे सब मरते भी हैं। कुछ पद वंशपरम्परा से चले आते हैं। युवराज महाराज के इकलौते पुत्र हैं। ऐसी दशा में युवराज का यह सोचना कि महाराजा होने के बाद बेटे का उपनयन करें-यह कोई गलत तो नहीं है। जो भी हो, पट्टाभिषेक भी स्थगित हुआ। उपनयन करने में विलम्ब हुआ।
और अधिक विलम्ब न हो-सम्भवतः इसलिए अब इसे सम्पन्न करने का निश्चय किया है।"
"जो भी हो, विवाह की उम्र में यह उपनयन सम्पन्न हो रहा है।"
"होने दो ! तुम्हें उनको समधिन तो नहीं बनना है। तुम्हें अपनी बेटी की शादी के बारे में सोचने के लिए अभी बहुत समय है। उन राजभटों का भोजन हो चुका हो तो उन्हें कहला भेजो। उन्हें और भी बहुत से काम होंगे। वे यहाँ बैठे-बैठे व्यर्थ में समय क्यों व्यतीत करें।"
हेगड़ती वहाँ से उठी और जाकर दो-चार क्षणों में ही लौटकर, "वे अभी आ रहे हैं। मैं थोड़ी देर में आऊँगी," कहकर भीतर चली गयी।
रेविमय्या और गोंक- दोनों राजभट उपस्थित हुए और अदब से प्रणाम कर खड़े हो गये। हेग्गड़े के उन्हें बैठने को कहने पर वे बैठ गये।
"तुम लोगों ने हेग्गड़तीजी को जो बताया है, उस सबसे हम अवगत हैं। युवराज की आज्ञा के अनुसार हम इस उपनयन महोत्सव के अवसर पर वहाँ अवश्य आएंगे।
पट्टमहादेवी शान्तला :: 25