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"मेरा क्या निश्चय होगा। जैसी आपकी आज्ञा होगी।"
"अपनी इच्छा के अनुसार मुझे अनुकूल बनाने में हेग्गड़तीजी बड़ी होशियार हैं। अब इस बात को रहने दें। यह बताएं कि अब क्या करना है?"
"युवरानीजी ने खुद अलग से सन्देश भेजा है। ऐसी हालत में न जाना क्या उचित होगा?"
"जाना तो हमारा कर्तव्य है ही। मगर यही शुभकार्य उनके महाराजा होने पर सम्पन्न हुआ होता तो कितना अच्छा लगता?..."
"महाराजा विनयादित्य प्रभु के जीवित रहते ऐयंग प्रभु का महाराजा बनना कैसे सम्भव हो सकता है?"
"युवराज एऐयंग प्रभु की आयु अब कितनी है-समझती हो?" "कितनी है?"
"उनका जन्म शालिवाहन शक सं. 969 सर्वजित् वर्ष में हुआ था। इस आंगोरस वर्ष तक पैंतालीस वर्ष के हो गए। फिर भी वे अब तक युवराज ही हैं। महाराजा विनयादित्य प्रभु को आयु अब करीब-करीब भीमरथ शान्ति सम्पन्न करने की है।"
"वह उनका भाग्य है। युवराज हैं, तो भी उन्हें किस बात की कमी है। सुनते हैं कि वास्तव में सारा राजकाज करीब-करीब उन्हीं के हाथ है।"
"किस गुप्तचर के द्वारा तुमने यह खबर पायी?" "सब लोग कहते फिरते हैं। इसके लिए गुप्तचर को क्या जरूरत है?"
"लोगों में प्रचलित विचार और वास्तविक स्थिति-इन दोनों में बहुत अन्तर रहता है । इस अन्तर को वहाँ देखा जा सकता है। अब तो वहाँ जाने का मौका भी आया
"मतलब यह कि जाने की आज्ञा है। है न?"
"आज्ञा या सम्पति जो भी हो, यहाँ जाना आवश्यक है। क्योंकि यह हमारा कर्तव्य है।"
पान तैयार कर हेग्गड़े के हाथ में देकर कहने लगी, "आप अकेले हो आइए।" "क्यों राजकुमार का उपनयन राज-कार्य नहीं है ?''
"ऐसा तो नहीं। पुरुषों के लिए तो सब जगह ठीक हो सकती है। मगर स्त्रियों को बड़े लोगों के यहाँ उनके अनुसार चलना कठिन होता है। हम छोटे हैं, क्या हम उनके बराबर हो सकेंगे?"
"मानव-जन्म लेकर, मनुष्य को अपने को कभी छोटा समझना ठीक नहीं। सपझी?"
"मैं अपने को कभी छोटी नहीं समझती, पर उनकी दृष्टि में हम छोटे हैं इसलिए कहा।"
24 :: पट्टमहादेवी शान्तला